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बदन तक मौजे-ख़्वाब आने को है फिर
 
ये बस्ती ज़ेरे-आब आने को हैफिर
 
हरी होने लगी है शाख़े-गिरिया
 
सरें-मिज़गां गुलाब आने को है फिर
 
अचानक रेत सोना बन गयी है
 
कहीं आगे सुराब आने को है फिर
 
ज़मीं इनकार के नश्शे में गुम है
 
फ़लक से इक अज़ाब आने को है फिर
 
बशारत दे कोई तो आसमाँ से
 
कि इक ताज़ा किताब आने को है फिर
 
दरीचे मैंने भी वा कर लिये हैं
 
कहीं वो माहताब आने को है फिर
 
जहाँ हर्फ़े-तअल्लुक़ हो इज़ाफ़ी
 
मुहब्बत में वो बाब आने को है फिर
 
घरों पर जब्रिया होगी सफ़ेदी
 
कोई इज़्ज़्त-म-आब आने को है फिर
 
 
मौजे-ख़्वाब=सपने की लहर; ज़ेरे-आब=पानी के नीचे; शाख़े-गिरिया=विलाप की डाली; सरें-मिज़गा=पलकों के ऊपर;
 
सुराब=मृग-म्ररीचिका; वा=खोलना; माहताब=चांद; हर्फ़े-तअल्लुक='सम्बन्ध'शब्द; इज़ाफ़ी=सम्बन्ध बढ़ाने वाला;
 
बाब=अध्याय; जब्रिया=जबरदस्ती; इज़्ज़त-म-आब= सम्मानित व्यक्ति
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