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:::(८६)
अमित बार देखी है मैंने
::चरम - रूप की वह रेखा,सच है, बार - बार देखा::विधि का वह अनुपमेय लेखा।जी - भर देख न सका कभी,::फिर इन्द्रजाल दिखलाओ तो,बहुत बार देखा, पर लगता::स्यात्, एक दिन ही देखा।
:::(८७)
हेर थका तू भेद, गगन पर
::क्यों उडु - राशि चमकती है?
देख रहा मैं खड़ा, मग्न
::आँखों की तृषा न छकती है।
मैं प्रेमी, तू ज्ञान - विशारद,
::मुझमें, तुझमें भेद यही,
हृदय देखता उसे, तर्क से
::बुद्धि न जिसे समझती है।
 
:::(८८)
उसे पूछ विस्मृति का सुख क्या,
::लगा घाव गम्भीर जिसे,
जग से दूर हटा ले बैठी
::दिल की प्यारी पीर जिसे।
जागरूक ज्ञानी बनकर जो
::भेद नहीं तू जान सका,
पूछ, बतायेगा, फूलों की
::बाँध चुकी जंजीर जिसे।
</poem>
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