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:::(९३)
अब साँझ हुई, किरणें समेट
::दिनमान छोड़ संसार चला,
वह ज्योति तैरती ही जाती,
::मैं डाँड़ चलाता हार चला।
"दो डाँड़ और दो डाँड़ लगा",
::दो डाँड़ लगाता मैं आया,
दो डाँड़ लगी क्या नहीं? हाय,
::जग की सीमा कर पार चला।
 
:::(९४)
छवि के चिन्तन में इन्द्रधनुष-सी
::मन की विभा नवीन हुई,
श्लथ हुए प्राण के बन्ध, चेतना
::रूप - जलधि में लीन हुई।
अन्तर का रंग उँड़ेल प्यार से
::जब तूने मुझको देखा
 
</poem>
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