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::रूप - जलधि में लीन हुई।
अन्तर का रंग उँड़ेल प्यार से
::जब तूने मुझको देखा,दृग में गीला सुख बिहँस उठा,::शबनम मेरी रंगीन हुई।
:::(९५)
पी चुके गरल का घूँट तीव्र,
::हम स्वाद जीस्त का जान चुके,
तुम दुःख, शोक बन-बन आये,
::हम बार-बार पहचान चुके।
खेलो नूतन कुछ खेल, देव!
::दो चोट नई, कुछ दर्द नया,
यह व्यथा विरस निःस्वाद हुई,
::हम सार भाग कर पान चुके।
:::(९६)
खोजते स्वप्न का रूप शून्य
::में निरवलम्ब अविराम चलो,
बस की बस इतनी बात, पथिक!
::लेते अरूप का नाम चलो।
जिनको न तटी से प्यार, उन्हें
::अम्बर में कब आधार मिला?
यह कठिन साधना-भूमि, बन्धु!
::मिट्टी को किये प्रणाम चलो।
 
:::(९७)
बाँसुरी विफल, यदि कूक-कूक
::मरघट में जीवन ला न सकी,
सूखे तरु को पनपा न सकी,
::मुर्दों को छेड़ जगा न सकी।
यौवन की वह मस्ती कैसी
::जिसको अपना ही मोह सदा?
जो मौत देख ललचा न सकी,
::दुनिया में आग लगा न सकी।
 
:::(९८)
पी ले विष का भी घूँट बहक,
::तब मजा सुरा पीने का है,
तनकर बिजली का वार सहे,
::यह गर्व नये सीने का है।
सिर की कीमत का भान हुआ,
::तब त्याग कहाँ? बलिदान कहाँ?
गरदन इज्जत पर दिये फिरो,
::तब मजा यहाँ जीने का है।
 
::(९९)
धरती से व्याकुल आह उठी,
::मैं दाह भूमि का सह न सका,
दिल पिघल-पिघल उमड़ा लेकिन,
::आँसू बन-बनकर बह न सका।
है सोच मुझे दिन-रात यही,
::क्या प्रभु को मुख दिखलाऊँगा?
जो कुछ कहने मैं आया था,
::वह भेद किसी से कह न सका।
 
:::(१००)
रंगीन दलों पर जो कुछ था,
::तस्वीर एक वह फानी थी,
लाली में छिपकर झाँक रही
::असली दुनिया नूरानी थी।
मत पूछ फूल की पत्ती में
::क्या था कि देख खामोश हुआ?
तूने समझा था मौन जिसे,
::मेरे विस्मय की बानी थी।
 
</poem>
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