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<poem>
कहीं से बोलता कोई नहीं है
तो बस्ती में भी क्या कोई नहीं है

मिरा जी तुझ से भी भरने लगा है
अगरचे दूसरा कोई नहीं है

कई सदियों की दूरी दरमियाँ है
बज़ाहिर फ़ासला कोई नहीं है

मैं सहरा में सदाएँ दे रहा हूँ
मिरा भी हमनवा कोई नहीं है

क़ुतुब ख़ानों में अब रख दो हमें भी
हमें भी देखता कोई नहीं है

सभी के दम घुटे जाते हैं लेकिन
खिड़कियाँ खोलता कोई नहीं है
</poem>
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