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|रचनाकार=नईम|संग्रह = लिख सकूँ तो / नईम
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<poem>
हो न सके खुलकर अपनों से,
वो भी कब किसके हो पाये ?
हो न सके खुलकर अपनों सेबीच धार में खड़े हुए हम विकट ज़िन्दगी का ये मंजर, <br>वो भी कब किसके हो पाये ?<br><br>पार उतरना, किन्तु डर रहे, ढीले-ढाले अंजर-पंजर। ख़ौफ़नाक हमले सपनों के,
बीच धार में खड़े हुए नींद न हम <br>विकट ज़िन्दगी का ये मंजर, <br>पार उतरना, किन्तु डर रहे, <br>ढीले-ढाले अंजर-पंजर। <br>ख़ौफ़नाक हमले सपनों के, <br><br>अपनी सो पाये।
नींद हो न सके हम अपनी सो पाये। <br><br>पूत ठीक से, पिता न हो पाये करीब से। रिश्ते भी क्या रिश्ते होते, महँगाई में इस ग़रीब के ?
हो मोल नहीं जाने वचनों के अपने बोझ न सके हम पूत ठीक से, <br>पिता न हो पाये करीब से। <br>रिश्ते भी क्या रिश्ते होते,<br>महँगाई में इस ग़रीब के ?<br><br>ढो पाये।
मोल नहीं जाने वचनों के <br>अपने बोझ न हम ढो पाये। <br><br> इनसे भी क्या गिला करें हम, <br>उनकी भी अपनी मजबूरी। <br>मिली कहाँ अब तक इन उनकी, <br>मेहनत की वाज़िब मज़दूरी ?<br>सोच-समझकर सौ जतनों से <br>
दाग़ न हम अपने धो पाये।
</poem>
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