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माँ-1 / रंजना जायसवाल

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<poem>
धूल पर
लकीरें खींचकर
खेलती थी मैं
सखियों के साथ
इक्कट-दुक्कट
गोटियाँ...

और माँ डाँटती थी -
लड़कियाँ खेलती नहीं
माँजती हैं बरतन
फूँकती है चूल्हा
लगाती हैं झाडू
पछींटती हैं कपडा़

मैं रोती और सोचती
बहुत अन्याय हो रहा है
मुझ पर...

आज
बेटी को सिखाते
घर का काम
माँ याद आती है...।
</poem>