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हम तो बचपन में भी अकेले थे / जावेद अख़्तर
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16:44, 23 फ़रवरी 2010
ज़िन्दगी के अजीब मेले थे <br><br>
आज ज़ेहन-ओ-दिल भूखों मरते हैं <br>
उन दिनों फ़ाके
भी
हमने झेले थे <br><br>
ख़ुदकुशी क्या ग़मों का हल बनती <br>
मौत के अपने
भी
सौ झमेले थे <br><br>
द्विजेन्द्र द्विज
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