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|रचनाकार=जगन्नाथदास 'रत्नाकर'
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[[Category:पद]]
<poem>
आयौ जुरि उततें समूह हुरिहारन कौ,
खेलन कों होरी वृषभान की किसोरी सों ।
कहै रतनाकर त्यों इत ब्रजनारी सबै,
सुनि-सुनि गारी गुनि ठठकि ठगोरी सों ॥
आँचर की ओट-ओटि चोट पिचकारिन की,
धाइ धँसी धूँधर मचाइ मंजु रोरी सों ।
ग्वाल-बाल भागे उत, भभरि उताल इति,
आपै लाल गहरि गहाइ गयौ गोरी सौं ॥
</poem>
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