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चौरासी समान, कटि किंकिनी बिराजत है,
साँकर ज्यों पग जुग घूँघरू बनाइ है ।
दौरी बे सँभार, उर-अंचल उघरि गयौ,
उच्च कुच-कुंभ, मनु चाचरि मचाई है ॥
लालन गुपाल, घोरि केसर कौ रंग लाल,
भरि पिचकारी मुँह ओर कों चलाई है ।
सेनापति धायौ मत्त काम कौ गयंद जानि,
चोप करि चंपै, मानों चरखी छुटाइ है ॥
</poem>
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