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03:40, 2 मार्च 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=जगन्नाथदास 'रत्नाकर'
}}
[[Category:पद]]
<poem>
नेम व्रत सजम के पींजरे परे को जब,
::लाज-कुल-कानि-प्रतिबंधहिं निवारि चुकीं ।
कौन गुन गौरब कौ लंगर लगाबै जब,
::सुधि बुधि ही कौ भार टेक करि टारि चुकीं ॥
जोग रतनाकर मैं सांस घूँटि बूड़े कौन,
::ऊधौ हम सूधौ यह बानक विचारि चुकीं ।
मुक्ति-मुकता कौ मोल माल ही कहा है जब,
::मोहन लला पै मन-मानिक ही वारि चुकीं ॥42॥
</poem>