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|रचनाकार=जगन्नाथदास 'रत्नाकर'
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<poem>
वाही मुख मंजुल की चतिं मरीचैं सदा
::हमकौं तिहारी ब्रह्म-ज्योति करिबौ कहा ।
कहै रतनाकर सुधाकर-उपासिनि कौं
::भानु की प्रभानि कैं जुहारि जरिबौ कहा ॥
भोगि रहीं बिरचे विरंचि के संजोग सबै
::ताके सोग सारन कौं जोग चरिबौ कहा ।
जब ब्रजचंद को चकौर चित चारु भयौ
::बिरह चिंगारिनि सौं फेरि डरिबौ कहा ॥52॥
</poem>
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