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नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार विनोद }} {{KKCatGhazal}} <poem> राग मज़हब का सुनाना आ गया …
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{{KKRachna
|रचनाकार=कुमार विनोद
}}
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<poem>
राग मज़हब का सुनाना आ गया
हुक्मराँ को गुल खिलाना आ गया
देखकर बाज़ार की क़ातिल अदा
ख़्वाहिशों को सर उठाना आ गया
सच को मिमियाता हुआ-सा देखकर
झूठ को आँखें दिखाना आ गया
ताश के पत्तों का है तो क्या हुआ
बेघरों को घर बनाना आ गया
कुछ भी कह देता मैं कल उस शोख़ से
बीच में रिश्ता पुराना आ गया
दूर खेतों में धुआँ था उठ रहा
और हम समझे ठिकाना आ गया
</poem>
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|रचनाकार=कुमार विनोद
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राग मज़हब का सुनाना आ गया
हुक्मराँ को गुल खिलाना आ गया
देखकर बाज़ार की क़ातिल अदा
ख़्वाहिशों को सर उठाना आ गया
सच को मिमियाता हुआ-सा देखकर
झूठ को आँखें दिखाना आ गया
ताश के पत्तों का है तो क्या हुआ
बेघरों को घर बनाना आ गया
कुछ भी कह देता मैं कल उस शोख़ से
बीच में रिश्ता पुराना आ गया
दूर खेतों में धुआँ था उठ रहा
और हम समझे ठिकाना आ गया
</poem>