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जाला / रमेश कौशिक

590 bytes added, 11:21, 25 जून 2010
|संग्रह = मैं यहाँ हूँ / रमेश कौशिक
}}
<poem><br />समय की स्लेट<br />और पानी की प्लेट पर<br />कितना ही लिखो<br />कुछ मकड़ी जाला बुनती हैतुम भी नहीं रहता<br />बचपन से जानता हूँ<br />लेकिन आज जाला बुनते होमैं भी कोशिश जाला बुनता हूँहम सब जाले बुनते हैं। जाले इसीलिए हैंकि वे बुने जाते हैंमकड़ी के द्वारातुम्हारे, मेरेया हम सब के द्वारा। मकड़ी, तुम या मैंया हम सब इसीलिए हैं कि अपने जालों में लगा हूँ।या एक-दूसरे के बुने जालों में फँसे। जब हम जाले बुनते हैंतब चुप-चुप बुनते हैंलेकिन जब उनमें फँसते हैंतब बहुत शोर करते है।</poem>
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