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|रचनाकार=विजय कुमार पंत
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मैं ढूंढ़ रही थी
कुवाँ कोई
और मुझसे सागर टकराया
मैं बूंद बूंद
प्यासी अब तक
उसने जी भर जल बरसाया

मैं लौट रही थी
एक आँगन
वो नील गगन में लहराता
मैं मंदिर मंदिर
नत मस्तक
वो खुदा खुदा बन इतराता

खलिहानों खेतों में
मैं थी
वो बाढ़ -बाढ़ बन कर आता
मन के लहराते पौधों को
संग बहा -उड़ा कर ले जाता

अब मेरे निर्जन
घाट देख कर
सबको ऐसा लगता है
सागर के चरणों में रहकर
अस्तित्व ह्रदय भी खोता है

तुम छोड़ मुझे
लेकर लहरें
एक नयी दिशा में जाते हो
फिर फैला अपनी बाँहों को
एक गंगा नयी डुबाते हो

पर सत्य कहूं
तो ऐसा है
मिटने का भाव ये जैसा है
घर -बार छोड़ कर जग सारा
पागल फिरता मारा -मारा
नदिया देती है मीठा जल
सागर करता उसको खारा

बन नदी रही होती अब तक
तो खारे अश्रु न टपकती
अधरों पर प्यास लिए ,
सागर तट पर ,
क्यूँ प्यासी रह पाती ?
</poem>
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