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11:46, 7 सितम्बर 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=मंजुला सक्सेना
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<poem>
कभी बन के बूंद पानी की
बादलों से गिरती हूँ .
कांपती हूँ, डरती हूँ,
यूं ही सहमी फिरती हूँ .
क्या पता किधर जाऊं?
सोख ले मिझे माती या
नहर में घुल जाऊं .
काश! ऐसा भी हो कि
सीप कोई खाली हो
एक बूंद बन के भी मोती
में बदल जाऊं !
'''लेखन काल: १९८३'''
</poem>