भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
बरछों से कुन्त-कटारों से॥
अरि - हृदय - रक्त का खप्पर पी
थीं तरज रही क्षण क्षण काली।
दाढ़ों में दबा दबाकर तन
वह घूम रही थी मतवाली॥
चुपचाप किसी ने भोंक दिया,
उर - आरपार कर गया छुरा।
झटके से उसे निकाल लिया,
अरि - शोणित से भर गया छुरा॥
हय - शिर उतार गज - दल विदार,
अरि - तन दो दो टुकड़े करती।
तलवार चिता - सी बलती थी,
थी रक्त - महासागर तरती॥
</poem>