भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
इसी वक्त तो परास्त करती हैं मुझे
कांपता हूं मैं, यश की विभूति से विभूषित,
पुष्पमाल के रूप में
अक्षम हूं मैं असमर्थताओं का पुतला,
काल-पीड़ित कविता में
रहने दो बंधु !
जीने दो जीवन को तापित औ' परितापित,
निष्कलंक रह लूंगा
('पंख और पतवार' नामक कविता-संग्रह से )