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<poem>
दो शाश्वतशाश्वतों-
भविष्य और अतीत के
आलोक-छायामय गोलक <ref>गोल पिंड यानी पृथ्वी</ref> में खड़ामैं इसे ऊंगली उँगली के स्पर्श मात्र सेघुमाता रहूं रहूँ नित्य ,मैं सांप्रत .<ref>वर्तमान</ref> । 
मैं सुई के अणिभर स्थान को
छुऊं छुऊँ क्षण भर,स्पर्ष स्पर्श से मुक्त हो जाऊं जाऊँ सत्वर <ref>शीघ्र</ref>,ऎसी नृत्यमयी छटा में खेलूंखेलूँगति चंचल तब भी मैं स्थिर . मेरे पास यह अवकाश <ref>शून्य</ref> विस्तृत
जिसके हित
मैं इस पंचतत्व के
संकल्प और साधन कितने अगणित
रचता रहूं रहूँ अनंत वर्म <ref>कवच</ref> में .असीम जो ,जो अरे अतीन्द्रियउसे करुं सीमित सत्व गोचर .आनंद के सिरजते क्षणविवर्तन में सांप्रत मैं चिरंतन .
सांप्रत=वर्तमान,गोलक=गोल पिंड (यहां संभवत: पृथ्वी)सत्वर=शीघ्र,अवकाश=शून्य,वर्म=कवचअसीम जो,जो अरे अतीन्द्रियउसे करूँ सीमित सत्व गोचर=<ref>वह जिसे इंद्रियों से जाना जा सके ). सक</ref> । आनंद के सिरजते क्षणविवर्तन में सांप्रत मैं चिरंतन ।
'''मूल गुजराती भाषा से अनुवाद : क्रान्ति'''
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