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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=यादवेंद्र शर्मा 'चंद्र' |संग्रह=}}{{KKCatKavita}}<poemPoem>हम हो तो गए हैं
सत्यवादी हरीशचंद्र
परंतु
तो हम
कड़वी दवाई की तरह उसे निगल जाते हैं
आखिर क्यों ?
मैं बताता हूं हूँ
हम पूंजी और मानवता की
वर्ण संकर संतानें हैं।हैं ।
चेहरे पर से चेहरे
चेहरे पर से चेहरे
चेहरे पर से चेहरे
प्याज़ के छिलकों की तरह उतारते जाएंजाएँ
अंतत: वजूद जैसा
एक दाना
पहचान भी रामनाम राम नाम सत्य है
पीछे फ़क़त शून्य ।
'''अनुवाद : नीरज दइया'''
</poem>