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Kavita Kosh से
सुबह पहन लेगी उजाला
सजना चाहती है वह चटक रंगों से
पृथ्वी सद्यः सद्य-प्रसूता है
उसका ह्रदय द्रवित है संतान के लिए
संतान कि भूख उससे देखि देखी नहीं जाती
सदा रहना चाहती है वह वत्सला
बहने कि आकांक्षा ही नदी है
नदी के पास सिर्फ सिर्फ़ मीठा पानी है
उसे पसंद नहीं सूखी धरती
वह भरना चाहती है गन्ने, गेहूं गेहूँ की बाली
और मकई के दाने में मिठास