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{{KKRachna
|रचनाकार=जावेद अख़्तर
}}
पीठ पर धर बोझ, अपनी राह नापूँ,
या किसी कालि-कुंज में रम गीत गाऊँ?
::जब मुझे इंसान का चोला मिला है,
::भार को स्वीकार करनर शान मेरी,
:::रीढ़ मेरी आज भी सीधी तनी है,
:::सख़्त पिंडी औ' कसी है रान मेरी,
::::किंतु दिल कोमल मिला है, क्या करूँ मैं,
::::देख छाया कशमकश में पड़ गया हूँ, सोचता हूँ,
::::पीठ पर धर बोझ, अपनी राह नापूँ,
::::या किसी कालि-कुंज में रम गीत गाऊँ?
कौन-सी ज्वाला हृदय में जल रही है
जो हरी पूर्वा-दरी मन मोहती है,
::किस उपेक्षा को भुलने के लिए हर
::फून-कलिका बाट मेरी जोहती है,
:::किसलयों पर सोहती हैं किसलिए बूँदें
:::कि अपने आँसुओं को देखकर मैं मुसकराऊँ,
::::क्या लताएँ इसलिए ही झुक गई हैं,
::::हाथ इनका थमकर मैं बैठ जाऊँ?
::::पीठ पर धर बोझ, अपनी राह नापूँ,
::::या किसी कालि-कुंज में रम गीत गाऊँ?
किंतु कैसे भूल जाऊँ सामने यह
भार बन साकार देती है चुनौती,
::जिस तरह का और जिस तादाद में है,
::मैं समझता हूँ इसे अपनी बपौती।
:::फ़र्ज मेरा, ले इसे चलना, जहाँ दम
:::टूट जाए, छोड़ना मज़बूत कंधों, पंजरों पर;
::::जो मुझे पुरु़षत्व पुरखों से मिला है,
::::सौ मुझे धिक्कार, जो उसको लजाऊँ।
::::पीठ पर धर बोझ, अपनी राह नापूँ,
::::या किसी कालि-कुंज में रम गीत गाऊँ?
वे मुझे बीमार लगते हैं निकुंजों
जो पड़े राग अपना मिनमिनाते,
::गीत गाने के लिए जो जी रहे हैं-
::काश जीने के लिए वे गीत गाते-
:::और वे पशु, जो कि परबस मौन रहकर
:::बोझ ढोते, नित्य मेरे कंठ में स्वर, भार सिरपर
::::हो कि जिससे गीत में मैं भार-हल्का,
::::भार से संगीत को भारी बनाऊँ।
::::पीठ पर धर बोझ, अपनी राह नापूँ,
::::या किसी कालि-कुंज में रम गीत गाऊँ?
{{KKRachna
|रचनाकार=जावेद अख़्तर
}}
पीठ पर धर बोझ, अपनी राह नापूँ,
या किसी कालि-कुंज में रम गीत गाऊँ?
::जब मुझे इंसान का चोला मिला है,
::भार को स्वीकार करनर शान मेरी,
:::रीढ़ मेरी आज भी सीधी तनी है,
:::सख़्त पिंडी औ' कसी है रान मेरी,
::::किंतु दिल कोमल मिला है, क्या करूँ मैं,
::::देख छाया कशमकश में पड़ गया हूँ, सोचता हूँ,
::::पीठ पर धर बोझ, अपनी राह नापूँ,
::::या किसी कालि-कुंज में रम गीत गाऊँ?
कौन-सी ज्वाला हृदय में जल रही है
जो हरी पूर्वा-दरी मन मोहती है,
::किस उपेक्षा को भुलने के लिए हर
::फून-कलिका बाट मेरी जोहती है,
:::किसलयों पर सोहती हैं किसलिए बूँदें
:::कि अपने आँसुओं को देखकर मैं मुसकराऊँ,
::::क्या लताएँ इसलिए ही झुक गई हैं,
::::हाथ इनका थमकर मैं बैठ जाऊँ?
::::पीठ पर धर बोझ, अपनी राह नापूँ,
::::या किसी कालि-कुंज में रम गीत गाऊँ?
किंतु कैसे भूल जाऊँ सामने यह
भार बन साकार देती है चुनौती,
::जिस तरह का और जिस तादाद में है,
::मैं समझता हूँ इसे अपनी बपौती।
:::फ़र्ज मेरा, ले इसे चलना, जहाँ दम
:::टूट जाए, छोड़ना मज़बूत कंधों, पंजरों पर;
::::जो मुझे पुरु़षत्व पुरखों से मिला है,
::::सौ मुझे धिक्कार, जो उसको लजाऊँ।
::::पीठ पर धर बोझ, अपनी राह नापूँ,
::::या किसी कालि-कुंज में रम गीत गाऊँ?
वे मुझे बीमार लगते हैं निकुंजों
जो पड़े राग अपना मिनमिनाते,
::गीत गाने के लिए जो जी रहे हैं-
::काश जीने के लिए वे गीत गाते-
:::और वे पशु, जो कि परबस मौन रहकर
:::बोझ ढोते, नित्य मेरे कंठ में स्वर, भार सिरपर
::::हो कि जिससे गीत में मैं भार-हल्का,
::::भार से संगीत को भारी बनाऊँ।
::::पीठ पर धर बोझ, अपनी राह नापूँ,
::::या किसी कालि-कुंज में रम गीत गाऊँ?