वृक्ष मैं नीरव विपिन का / आनन्द बल्लभ 'अमिय'
कब पसीजेगा तुम्हारा अति निठुर हृदय बटोही
वृक्ष मैं नीरव विपिन का आज तुमसे पूछता हूँ।
रोज तुमको छाँव देकर घोर आतप से बचाया।
प्यार देकर मीत जैसा धर्म नित प्रतिपल निभाया।
बिम्ब-सा मैं चल रहा हर ऋतु तुम्हारे संग में पर
मीत मेरे हे बटोही तुमने निज स्वारथ भुनाया।
आपके हित तो झुका हूँ गोद में ले फल अपरिमित
किन्तु अब तक स्नेह वाली थाप को ही खोजता हूँ।
भौतिकी परिवर्तनों से देह मेरी ढल रही है।
बेहिसाबी चिमनियों के धूम से भी जल रही है।
और तुम लेकर कुल्हाड़ी अंत मेरा कर रहे हो
क्या तुम्हें निर्दोष मारुत आज मेरी खल रही है।
पीढ़ियों का सोचना रे! स्वार्थ के लाचार सहचर
अक्ल कब आएगी तुमको आज भी मैं सोचता हूँ।
दो घड़ी को सोच यदि होता कहीं न मैं धरा में।
हर तरफ सूखी मृदा, होता न जीवन उर्वरा में।
वायु में घुलता जहर मरता कयी रोगों से तू फिर
जिन्दगी को निज बिताता तू विकारों में जरा में।
याद कर मीठे फलों को और झूले फागुनी वो
मित्रवत व्यवहार पर इन आँसुओं को पोछता हूँ।