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वेदना मेरी बनी संवेदना / आत्म-रति तेरे लिये / रामस्वरूप 'सिन्दूर'

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वेदना मेरी बनी संवेदना!
मूर्छना को आ गई है चेतना!

कामनाओं से विमुख हो, जी सकूँ,
रह गई है शेष इतनी कामना!

क्या हुआ, हो भर्त्सना मेरी वहाँ,
हो जहाँ आदर्श की आलोचना!

उस अनागत और गत में भेद क्या,
हो न जिसके गर्भ में संभावना!

हाय रे! सार्मथ्य की असर्मथता,
हो न पाती स्नेह की अवहेलना!

यातना में सुख मुझे मिलने लगा,
और सुख देने लगा है यातना!

प्रार्थना ‘सिन्दूर’ ने उसके सुनी,
तान ग्रीवा की, कि जिसने प्रार्थना!