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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / तृतीय सर्ग / पृष्ठ २

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शान्ति-मय-वातावरण विलोक।
रुचिर चर्चा है चारों ओर॥
कीर्ति-राका-रजनी को देख।
विपुल-पुलकित है लोक चकोर॥21॥

किन्तु देखे राकेन्दु विकास।
सुखित कब हो पाता है कोक॥
फूटती है उलूक की ऑंख।
दिव्यता दिनमणि की अवलोक॥22॥

जगत जीवनप्रद पावस काल।
देख जलते हैं अर्क जवास॥
पल्लवित होते नहीं करील।
तन लगे सरस-बसंत-बतास॥23॥

जगत ही है विचित्रता धाम।
विविधता विधि की है विख्यात॥
नहीं तो सुन पाता क्यों कान।
अरुचिकर परम असंगत बात॥24॥

निंद्य है रघुकुल तिलक चरित्र।
लांछिता है पवित्रता मूर्ति॥
पूत शासन में कहता कौन।
जो न होती पामरता पूर्ति॥25॥

आप हैं प्रजा-वृन्द-सर्वस्व।
लोक आराधन के अवतार।
लोकहित-पथ-कण्टक के काल।
लोक मर्यादा पारावार॥26॥

बन गयी देश काल अनुकूल।
प्रगति जितनी थी हित विपरीत॥
प्रजारंजन की जो है नीति।
वही है आदर सहित गृहीत॥27॥

जानते नहीं इसे हैं लोग।
कहा जाता है किसे अभाव॥
विलसती है घर-घर में भूति।
भरा जन-जन में है सद्भाव॥28॥

रही जो कण्टक-पूरित राह।
वहाँ अब बिछे हुए हैं फूल॥
लग गये हैं अब वहाँ रसाल।
जहाँ पहले थे खड़े बबूल॥29॥

प्रजा में व्यापी है प्रतिपत्ति।
भर गया है रग-रग में ओज॥
शस्य-श्यामला बनी मरु-भूमि।
ऊसरों में हैं खिले सरोज॥30॥

नहीं पूजित है कोई व्यक्ति।
आज हैं पूजनीय गुण कर्म॥
वही है मान्य जिसे है ज्ञात।
मानसिक पीड़ाओं का मर्म॥31॥

इसलिए है यह निश्चित बात।
प्रजाजन का यह है न प्रमाद॥
कुछ अधम लोगों ने ही व्यर्थ।
उठाया है यह निन्दावाद॥32॥

सर्व साधारण में अधिकांश।
हुआ है जन-रव का विस्तार॥
मुख्यत: उन लोगों में जो कि।
नहीं रखते मति पर अधिकार॥33॥

अन्य जन अथवा जो हैं विज्ञ।
विवेकी हैं या हैं मतिमान॥
जानते हैं जो मन का मर्म।
जिन्हें है धर्म कर्म का ज्ञान॥34॥

सुने ऐसा असत्य अपवाद।
मूँद लेते हैं अपने कान॥
कथन कर नाना-पूत-प्रसंग।
दूर करते हैं जन-अज्ञान॥35॥

ज्ञात है मुझे न इसका भेद।
कहाँ से, क्यों फैली यह बात॥
किन्तु मेरा है यह अनुमान।
पतित-मतिका है यह उत्पात॥36॥

महानद-सबल-सिंधु के पार।
रहा जो गन्धर्वों का राज॥
वहाँ था होता महा-अधर्म।
प्रायश: सध्दर्मों के व्याज॥37॥

कहे जाते थे वे गन्धर्व।
किन्तु थे दानव सदृश दुरंत॥
न था उनके अवगुण का ओर।
न था अत्याचारों का अन्त॥38॥

न रक्षित था उनसे धन धाम।
न लोगों का आचार विचार॥
न ललनाकुल का सहज सतीत्व।
न मानवता का वर व्यवहार॥39॥

एक कर में थी ज्वलित मशाल।
दूसरे कर में थी करवाल॥
एक करता नगरों का दाह।
दूसरा करता भू को लाल॥40॥