भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / प्रथम सर्ग / पृष्ठ १

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रथम सर्ग : उपवन
छन्द : रोला

लोक-रंजिनी उषा-सुन्दरी रंजन-रत थी।
नभ-तल था अनुराग-रँगा आभा-निर्गत थी॥
धीरे-धीरे तिरोभूत तामस होता था।
ज्योति-बीज प्राची-प्रदेश में दिव बोता था॥1॥

किरणों का आगमन देख ऊषा मुसकाई।
मिले साटिका-लैस-टँकी लसिता बन पाई॥
अरुण-अंक से छटा छलक क्षिति-तल पर छाई।
भृंग गान कर उठे विटप पर बजी बधाई॥2॥

दिन मणि निकले, किरण ने नवलज्योति जगाई।
मुक्त-मालिका विटप तृणावलि तक ने पाई॥
शीतल बहा समीर कुसुम-कुल खिले दिखाए।
तरु-पल्लव जगमगा उठे नव आभा पाए॥3॥

सर-सरिता का सलिल सुचारु बना लहराया।
बिन्दु-निचय ने रवि के कर से मोती पाया॥
उठ-उठ कर नाचने लगीं बहु-तरल तरंगें।
दिव्य बन गईं वरुण-देव की विपुल उमंगें॥4॥

सारा-तम टल गया अंधता भव की छूटी।
प्रकृति-कंठ-गत मुग्ध-करी मणिमाला टूटी॥
बीत गयी यामिनी दिवस की फिरी दुहाई।
बनीं दिशाएँ दिव्य प्रभात प्रभा दिखलाई॥5॥

एक रम्यतम-नगर सुधा-धावलित-धामों पर।
पड़ कर किरणें दिखा रही थीं दृश्य-मनोहर॥
गगन-स्पर्शी ध्वजा-पुंज के, रत्न-विमण्डित-
कनक-दण्ड, द्युति दिखा बनाते थे बहु-हर्षित॥6॥

किरणें उनकी कान्त कान्ति से मिल जब लसतीं।
निज आभा को जब उनकी आभा पर कसतीं॥
दर्शक दृग उस समय न टाले से टल पाते।
वे होते थे मुग्ध, हृदय थे उछले जाते॥7॥

दमक-दमक कर विपुल-कलस जो कला दिखाते।
उसे देख रवि ज्योति दान करते न अघाते॥
दिवस काल में उन्हें न किरणें तज पाती थीं।
आये संध्या-समय विवश बन हट जाती थीं॥8॥

हिल हिल मंजुल-ध्वजा अलौकिकता थी पाती।
दर्शक-दृग को बार-बार थी मुग्ध बनाती॥
तोरण पर से सरस-वाद्य ध्वनि जो आती थी।
मानो सुन वह उसे नृत्य-रत दिखलाती थी॥9॥

इन धामों के पार्श्व-भाग में बड़ा मनोहर।
एक रम्य-उपवन था नन्दन-वन सा सुन्दर॥
उसके नीचे तरल-तरंगायित सरि-धारा।
प्रवह-मान हो करती थी कल-कल-रव न्यारा॥10॥

उसके उर में लसी कान्त-अरुणोदय-लाली।
किरणों से मिल, दिखा रही थी कान्ति-निराली।
कियत्काल उपरान्त अंक सरि का हो उज्ज्वल।
लगा जगमगाने नयनों में भर कौतूहल॥11॥

उठे बुलबुले कनक-कान्ति से कान्तिमान बन।
लगे दिखाने सामूहिक अति-अद्भुत-नर्तन॥
उठी तरंगें रवि कर का चुम्बन थीं करती।
पाकर मंद-समीर विहरतीं उमग उभरतीं॥12॥

सरित-गर्भ में पड़ा बिम्ब प्रासाद-निचय का।
कूल-विराजित विटप-राजि छाया अभिनय का॥
दृश्य बड़ा था रम्य था महा-मंजु दिखाता।
लहरों में लहरा लहरा था मुग्ध बनाता॥13॥

उपवन के अति-उच्च एक मण्डप में विलसी।
मूर्ति-युगल इन दृश्यों के देखे थी विकसी॥
इनमें से थे एक दिवाकर कुल के मण्डन।
श्याम गात आजानु-बाहु सरसीरूह-लोचन॥14॥

मर्यादा के धाम शील-सौजन्य-धुरंधर।
दशरथ-नन्दन राम परम-रमणीय-कलेवर॥
थीं दूसरी विदेह-नन्दिनी लोक-ललामा।
सुकृति-स्वरूपा सती विपुल-मंजुल-गुण-धामा॥15॥

वे बैठी पति साथ देखती थीं सरि-लीला।
था वदनांबुज विकच वृत्ति थी संयम-शीला॥
सरस मधुर वचनों के मोती कभी पिरोतीं।
कभी प्रभात-विभूति विलोक प्रफुल्लित होतीं॥16॥

बोले रघुकुल-तिलक प्रिये प्रात:-छबि प्यारी।
है नितान्त-कमनीय लोक-अनुरंजनकारी॥
प्रकृति-मृदुल-तम-भाव-निचय से हो हो लसिता।
दिनमणि-कोमल-कान्ति व्याज से है सुविकसिता॥17॥

सरयू सरि ही नहीं सरस बन है लहराती।
सभी ओर है छटा छलकती सी दिखलाती॥
रजनी का वर-व्योम विपुल वैचित्रय भरा है।
दिन में बनती दिव्य-दृश्य-आधार धरा है॥18॥

हो तरंगिता-लसिता-सरिता यदि है भाती।
तो दोलित-तरु-राजि कम नहीं छटा दिखाती॥
जल में तिरती केलि मयी मछलियाँ मनोहर।
कर देती हैं सरित-अंक को जो अति सुन्दर॥19॥

तो तरुओं पर लसे विहरते आते जाते।
रंग विरंगे विहग-वृन्द कम नहीं लुभाते॥
सरिता की उज्वलता तरुचय की हरियाली।
रखती है छबि दिखा मंजुता-मुख की लाली॥20॥