वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / सप्तम सर्ग / पृष्ठ ४
विचित्रता तो भला कौन है।
स्वभाव का यह स्वभाव ही है॥
कब न वारि बरसे पयोद बन।
समुद्र की ओर सरि बही है॥61॥
वियोग का काल है अनिश्चित।
व्यथा-कथा वेदनामयी है॥
बहु-गुणावली रूप-माधुरी।
रोम-रोम में रमी हुई है॥62॥
अत: रहूँगी वियोगिनी मैं।
नेत्र वारि के मीन बनेंगे॥
किन्तु दृष्टि रख लोक-लाभ पर।
सुकीर्ति-मुक्तावली जनेंगे॥63॥
सरस सुधा सी भरी उक्ति के।
नितान्त-लोलुप श्रवण रहेंगे॥
किन्तु चाव से उसे सुनेंगे।
भले-भाव जो भली कहेंगे॥64॥
हृदय हमारा व्यथित बनेगा।
स्वभावत: वेदना सहेगा॥
अतीव-आतुर दिखा पड़ेगा।
नितान्त-उत्सुक कभी रहेगा॥65॥
कभी आह ऑंधियाँ उठेंगी।
कभी विकलता-घटा घिरेगी॥
दिखा चमक चौंक-व्याज उसमें।
कभी कुचिन्ता-चपला फिरेगी॥66॥
परन्तु होगा न वह प्रवंचित।
कदापि गन्तव्य पुण्य-पथ से॥
कभी नहीं भ्रान्त हो गिरेगा।
स्वधर्म-आधार दिव्य रथ से॥67॥
सदा करेगा हित सर्व-भूत का।
न लोक आराधन को तजेगा॥
प्रणय-मूर्ति के लिए मुग्ध हो।
आर्त-चित्त आरती सजेगा॥68॥
अवश्य सुख वासना मनुज को।
सदा अधिक श्रान्त है बनाती॥
पड़े स्वार्थ-अंधता तिमिर में।
न लोक हित-मूर्ति है दिखाती॥69॥
कहाँ हुआ है उबार किसका।
सदा सभी की हुई हार है॥
अपार-संसार वारिनिधि में।
आत्मसुख भँवर दुर्निवार है॥70॥
बड़े-बड़े पूज्य-जन जिन्होंने।
गिना स्वार्थ को सदैव सिकता॥
न रोक पाए प्रकृति प्रकृति को।
न त्याग पाये स्वाभाविकता॥71॥
चौपदे
मैं अबला हूँ आत्मसुखों की।
प्रबल लालसाएँ प्रतिदिन आ॥
मुझे सताती रहती हैं जो।
तो इसमें है विचित्रता क्या॥72॥
किन्तु सुनो सुत जिस पति-पद की।
पूजा कर मैंने यह जाना॥
आत्मसुखों से आत्मत्याग ही।
सुफलद अधिक गया है माना॥73॥
उसी पूत-पद-पोत सहारे।
विरह-उदधि को पार करूँगी॥
विधु-सुन्दर वर-वदन ध्यान कर।
सारा अन्तर-तिमिर हरूँगी॥74॥
सर्वोत्तम साधन है उर में।
भव-हित पूत-भाव का भरना॥
स्वाभाविक-सुख-लिप्साओं को।
विश्व-प्रेम में परिणत करना॥75॥
दोहा
इतना सुन सौमित्रा की दूर हुई दुख-दाह।
देखा सिय ने सामने सरि-गोमती-प्रवाह॥76॥