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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / सप्तम सर्ग / पृष्ठ ३

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चला वेग से अपूर्व स्यंदन।
चली गयी यत्र तत्र जनता॥
विचार-मग्न हुईं जनकजा।
बड़ी विषम थी विषय-गहनता॥41॥

कभी सुमित्र-सुअन ऊबकर।
वदन जनकजा का विलोकते॥
कभी दिखाते नितान्त-चिन्तित।
कभी विलोचन-वारि रोकते॥42॥

चला जा रहा दिव्य यान था।
अजस्र था टाप-रव सुनाता॥
सकल-घण्टियाँ निनाद रत थीं।
कभी चक्र घर्घरित जनाता॥43॥

हरे भरे खेत सामने आ।
भभर, रहे भागते जनाते॥
विविध रम्य आराम-भूरि-तरु।
पंक्ति-बध्द थे खड़े दिखाते॥44॥

कहीं पास के जलाशयों से।
विहंग उड़ प्राण थे बचाते॥
लगा-लगा व्योम-मध्य चक्कर।
अतीव-कोलाहल थे मचाते॥45॥

कहीं चर रहे पशु विलोक रथ।
चौंक-चौंक कर थे घबराते॥
उठा-उठा कर स्वकीय पूँछें।
इधर-उधर दौड़ते दिखाते॥46॥

कभी पथ-गता ग्राम-नारियाँ
गयंद-गतिता रहीं दिखाती॥
रथाधिरूढ़ा कुलांगना की।
विमुग्ध वर-मूर्ति थी बनाती॥47॥

कनक-कान्ति, कोशल-कुमार का।
दिव्य-रूप सौन्दर्य्य-निकेतन॥
विलोक किस पांथ का न बनता।
प्रफुल्ल अंभोज सा विकच मन॥48॥

अधीर-सौमित्र को विलोके।
कहा धीर-धर धरांगजा ने॥
बड़ी व्यथा हो रही मुझे है।
अवश्य है जी नहीं ठिकाने॥49॥

परन्तु कर्तव्य है न भूला।
कभी उसे भूल मैं न दूँगी॥
नहीं सकी मैं निबाह निज व्रत।
कभी नहीं यह कलंक लूँगी॥50॥

विषम समस्या सदन विश्व है।
विचित्र है सृष्टि कृत्य सारा॥
तथापि विष-कण्ठ-शीश पर है।
प्रवाहिता स्वर्ग-वारि-धरा॥51॥

राहु केतु हैं जहाँ व्योम में।
जिन्हें पाप ही पसन्द आया॥
वहीं दिखाती सुधांशुता है।
वहीं सहस्रांशु जगमगाया॥52॥

द्रवण शील है स्नेह सिंधु है।
हृदय सरस से सरस दिखाया॥
परन्तु है त्याग-शील भी वह।
उसे न कब पूत-भाव भाया॥53॥

स्वलाभ तज लोक-लाभ-साधन।
विपत्ति में भी प्रफुल्ल रहना॥
परार्थ करना न स्वार्थ-चिन्ता।
स्वधर्म-रक्षार्थ क्लेश सहना॥54॥

मनुष्यता है करणीय कृत्य है।
अपूर्व-नैतिकता का विलास है॥
प्रयास है भौतिकता विनाश का।
नरत्व-उन्मेष-क्रिया-विकास है॥55॥

विचार पतिदेव का यही है।
उन्हें यही नीति है रिझाती॥
अशान्त भव में यही रही है।
सदा शान्ति का स्रोत बहाती॥56॥

उसे भला भूल क्यों सकूँगी।
यही ध्येय आजन्म रहा है॥
परम-धन्य है वह पुनीत थल।
जहाँ सुरसरी सलिल बहा है॥57॥

विलोक ऑंखें मयंक-मुख को।
रही सुधा-पान नित्य करती॥
बनी चकोरी अतृप्त रहकर।
रहीं प्रचुर-चाव साथ भरती॥58॥

किसी दिवस यदि न देख पातीं।
अपार आकुल बनी दिखातीं॥
विलोकतीं पंथ उत्सुका हो।
ललक-ललक काल थीं बिताती॥59॥

बहा-बहा वारि जो विरह में।
बनें ए नयन वारिवाह से॥
बार-बार बहु व्यथित हुए, जो।
हृदय विकम्पित रहे आह से॥60॥