भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वैसे का वैसा है होरी, सुन बाबा / अश्वनी शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


वैसे का वैसा है होरी, सुन बाबा
गिद्ध करे है मुर्दाखोरी, सुन बाबा।

बस्ती को शमशान बनान का गुर ले
ताप रहे हैं कई अघोरी, सुन बाबा।

मुल्क, अवामी बातें एक बहाना है
सुर्ख़ी किसने कहां बटोरी, सुन बाबा।

नूरा कुश्ती, दुरभिसंधियां, समझौते
मगर सामने जोरा जोरी, सुन बाबा।

दुनिया में बस बूढ़े ही पैदा होते
सिसक रही है मां की लोरी, सुन बाबा।

मर्दानापन एक साज़िश की भेंट चढ़ा
कुछ जन्ख़ों ने खींस निपोरी, सुन बाबा।

आदम-आदमखोर, आदमीयत सहमी
सत्ता चाटे ख़ून चटोरी, सुन बाबा।