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वैसे ही आऊँगा / विमलेश त्रिपाठी
Kavita Kosh से
मंदिर की घंटियों की आवाज़ के साथ
रात के चौथे पहर
जैसे पंछियों की नींद को चेतना आती है
किसी समय के बवंडर में
खो गए
किसी बिसरे साथी के
जैसे दो अदृश्य हाथ
उठ आते हैं हार गए क्षणों में
हर रात सपने में
मृत्यु का एक मिथक जब टूटता है
और पत्नी के झुराए होंठो से छनकर
हर सुबह
जीवन में जीवन आता है पुनः जैसे
कई उदास दिनों के
फाँके क्षणों के बाद
बासन की खड़खड़ाहट के साथ
जैसे अंतड़ी की घाटियों में
अन्न की सोंधी भाप आती है
जैसे लंबे इंतज़ार के बाद
सुरक्षित घर पहुँचा देने का
मधुर संगीत लिए
प्लेटफॉर्म पर पैसेंजर आती है
वैसे ही आऊँगा मैं ।