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वो अक्सर मेरे सब्रो-ज“ब्त को यूँ आज’माते हैं / पवन कुमार

वो अक्सर मेरे सब्रो-ज“ब्त को यूँ आज’माते हैं
हवा जख़्मों को देकर फिर नमक उन पर लगाते हैं

यहाँ तो हर घड़ी हर सिम्त इक हंगामा बरपा है
कहीं ख़ामोश वादी में चलो धूनी रमाते है

ज’रूरत आदमी को आदमी रहने नहीं देती
मगर सब इस हकीक’त से हमेशा मुँह छुपाते हैं

लगाओ कितने ही इल्ज“ाम तुम हम पर मुहब्बत में
मियाँ इन तोहमतों से हम कहाँ दामन बचाते हैं

ज’रा सी ठेस लगते ही बिखर जायेंगे पलकों पर
पता है फिर भी हम ख़्वाबों को आँखों में सजाते हैं

अँधेरा जब भी ना उम्मीदियों का बढ़ने लगता है
तुम्हारी याद की शम्ऐ जलाते हैं बुझाते हैं

मिरे हमदर्द कुछ इस तरहः हमदर्दी दिखाते है
कहीं से दर्द उठता है कहीं मरहम लगाते हैं

सब्रो-ज’ब्त = धैर्य और सहन करना