वो कभी गुल कभी ख़ार होते रहे
फिर भी हम उनको दिल में संजोते रहे
इश्क का पैरहन यूँ तो बेदाग था
हम मगर उसको अश्कों से धोते रहे
वादियों में धमाकों की आवाज से
सुर्ख़ गुंचे जो थे ज़र्द होते रहे
काट डाला उसी पेड़ को एक दिन
मुद्दतों जिसके साए में सोते रहे
मोहतरम हो गए वो जो बदनाम थे
हम शराफत को काँधों पे ढोते रहे
मंजिलें उनको मिलतीं भी कैसे भला
हौसले हादसों में जो खोते रहे
आरज़ू थी उगें सारे मंजर हसीं
इसलिए फस्ल ख़्वाबों की बोते रहे
ज़िन्दगी भी उन्हें बख़्शती किसलिए
बोझ की तरह जो इसको ढोते रहे