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वो शख़्स एक समंदर जो सबको लगता था / कुमार अनिल

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वो शख़्स एक समंदर जो सबको लगता था
किसे पता है भला वो भी कितना प्यासा था

अजीब बात ये अक्सर हुई है साथ मेरे
घटा थी, दोस्त थे, मय थी मगर मै तन्हा था

घटा को देख के हर शख़्स काँप-काँप गया
हमारे गाँव का हर एक मकान कच्चा था

ये बात और है ख़ुशियाँ वो लिखना भूल गया
सुना तो है कि नसीब उसने मेरा लिक्खा था

ये कौन याद के पत्थर यहाँ उछाल गया
ज़हन की झील का पानी तो कब का सोया था

किसी ने क़त्ल ही देखा न मेरी चीख़ सुनी
तमाशबीन थे अंधे , हुजूम बहरा था

हरेक क्यारी में उग आई कोई नागफनी
बड़ी उम्मीद से हमने गुलाब रोपा था

अगर 'अनिल' वो नहीं था तो कौन था यारो
जो शहरे संग में भी दिल की बात करता था