भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वो सरफिरी हवा थी सँभलना पड़ा / 'अमीर' क़ज़लबाश
Kavita Kosh से
वो सरफिरी हवा थी सँभलना पड़ा मुझे
मैं आख़िरी चराग़ था जलना पड़ा मुझे
महसूस कर रहा था उसे अपने आस पास
अपना ख़याल ख़ुद ही बदलना पड़ा मुझे
सूरज ने छुपते छुपते उजागर किया तो था
लेकिन तमाम रात पिघलना पड़ा मुझे
मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू थी मेरी ख़ामुशी कहीं
जो ज़हर पी चुका था उगलना पड़ा मुझे
कुछ दूर तक तो जैसे कोई मेरे साथ था
फिर अपने साथ आप ही चलना पड़ा मुझे