शकुन्तला / अध्याय 10 / भाग 1 / दामोदर लालदास
छल कन्याहित जेहन वरक कण्वक अभिलाषा।
तेहने जानि सुयोग्य भेल वर पूरल आशा।।
सभ विधि विधि छथि धन्य! महा करुणा-आगरा।
अस्तु, कण्व-उर-बहल विनोदक अनुपम धारा।।
अछि जगमे ई-विदित, अथच सम्मति विद्वानक।
होय धरोहर-वस्तु-तुल्य कन्या धु्रव आनक।।
से बिचारि विज्ञान-विशारद मुनिवर मनमे।
तैयारी कय देल बिदा केर पावन वनमे।।
द्रुत मृगरोचन, कुसुम, दूभि-दल आनल गेले।
मांगलीक सभ वस्तु उपस्थित तत्क्षण भेले।।
पसरि तपोवन गेल महा मंगल ई वाणी।
शकुन्तला पति-सदन-गमन करती कल्याणी।।
बजितहिं ततबे कथा नचनसँ नोरक धारा।
उमडि़-उलडि़ बहि चलल धैर्य लय सँग अपारा।।
जतहि पड़ै अछि दृष्टि लगै अछि ततहि अन्हारे।
भावी सुता-वियोग सुनिरि दुख हो विस्तारे।।
कनितहिं धय किछु धैर्य कहल-’ हम छी वनवासी।
सँसारी व्यवहार आदिसँ भेल उदासी।।
पर, हमरहु ई दशा जखन बेटीक बिदामे।
तखन गृहस्थक दुखक पार ककरा गणनामे।।
वल्कल-पट-परिधान जखन देखल कन्याकें।
दुष्यन्तक प्रियतमा, अनुप गुण-छवि धन्याकें।।
बजला करुणा-रस-प्रपूर्ण किछु धैर्य समेटी।
‘कि श्रृंगारेहीन पतिक गृह जाइति बेटी।।
श्रुतिगोचर कय करुण कथा मुनिवरक महाने।
बिपिन-देवगण भय प्रसन्न दु्रत कयल प्रदाने।।
सुर-दुर्लभ पट विविध तथा भूषणहुँ अपारे।
जे लय भेल शकुन्तलाक अनुपम श्रृंगारे।।
पति-गृह-गमनक काल जते प्रिय मंगलकारी।
केशर-माल रसाल बकुल-रेणुहुँ मनहारी।।
दिव्य तिलक, सिन्दूर, सुमन-सज्जित कच-वेणी।
सभक सरस उपयोग भेल! लखि दौड़ल एणी।।
देवांगना-समान देखि शाकुन्तल-शोभा।
लगा देल टकटकी आबि सन्निधि छवि-लोभा।।
थपथपाय मृदु पृष्ठदेश क्षण-क्षण चुचुकारथि।
फिर देखि की सकब सुमिरि लोचन-जल ढारथि।।
पाबि दुलार शकुन्तलाक हरिणहुँ सुख मानय।
बुझि पड़ैत अछि आइ हहरि हरिणो जनु कानय।।
हरिणि चरब निज छोडि़ गर्भ-भारें छलि क्षामा।
मन्द-मन्द चलि निकट आबि पहुँ चल तेहि ठामा।।
की पशुओ सुख-दुखक वियोगक आगम जानय?
नहि तै हरिणहु किये उदासी मुखपर आनय?
हरिणिहुँ पाबि दुलार अन्तिमहिं शकुन्तलासँ।
तृप्त जकाँ नहि पड़य देखि मुख-रुचिक विभासँ।।
यद्यपि छल मन पतिक मिलन-अभिलाषा भारी।
स्वजन-विहर-वेदना किन्तु नहि कम दुखकारी।।
रहि-रहि सखिहुँक नयन नोरसँ भरि-भरि आबय।
कण्ठ होय अवरुद्ध वचन बहरय नहि पाबय।
तदपि कहल सखि-‘सखि’! अति अश्रु नयनसँ।
की हा! देब हटाय आब मोहि हृदय-भवनसँ?
हा! कहिया हम फेर चन्द्र-मुख देखब तोरे?
कनकलते! कहि आब करब ककरा हम शोरे?
ककर सँग मिलि आब आनि जल फल पटायब?
नित नव ककरा सँग आब कति खेलि खेलायब?
के हँ सौत हा! बात-बातमें आब सप्रीती?
हा! ककरा हम पकडि़ आब गबबायब गीती?
अस्तु, कहब की अधिक! सखी! भूपतिहि समाने।
त हुँ जनि जो ई बिसरि तपोवन मोद-निधाने।।
वन तजि तों सखि! ततय महारानी-पद पैबें।
अनुचित हो तँ कियै कौखनो पत्र पठैबें।।
कयल श्रवण सखिगणक आर्त मधुरोपम बयने।
शकुन्तलाकें भरल नोरसँ पंकज-नयने।।
बाहु-बल्लि युग अपन अधीरा भेलि बिथारल।
लपटि धयल दुहु सखिक कंध विरहाद्र्मा झमारल।।
दुहु दिशिसँ गरधरी ह्वैछ अनुरागहिं माती।
उमडि़ रहल की अहा! स्नेह-सागर कति भाँति।।
खनहुँ सखिक सखि धरथि परस्पर परिधन चीरे।
भावी दुखद वियोग करय दुहु पक्ष अधीरे।।
सखि प्रियंवदा कहल सखिक कर-पल्लव धयने।
‘जा रहले’ हा सखी! आइ वन श्रीहत कयने।।
कतय गेल आनन्द आइ तपवनक विहंगक।
बन्द सभक चहचही, कुहुक, कलरव कति रंगक।।
रोदनसँ अवकाश कहाँ? पर, शकुन्तलाकें।
विरह-पयोदाच्छन्न अनूपम चन्द्रकलाकें।।
तें किछु बाजि न सकलि सखी बोधल कति भाँती।
तदपि सुखायल की कपोलपरसँ जल-पाँती
अनसूया कहि उठलि सरोदन मधु वाणीमे।
सखी! भेल तल्लीन भूप जनु गृहराणीमे।।
तें यदि नहि से चिन्हथि कदाचित तँ अँह चूपे।
तनिके देल देखाय देव औंठी सुखरूपे।।
ई रहस्यमय सुनिहुँ वचन-रचना दुखकारी।
रंचहुँ ध्यान न देल अहाहा! कण्व-कुमारी।।
कनितहि से रहि गेलि, भेल किछु कहि न वचनसँ
की छल जग बढि़ प्रिया वस्तु तनिका रोदनसँ।।
अस्तु, प्रयाण-मुहूर्त जानि मुनि कण्व बजौलनि।
मंत्रें हवनाग्निक परिक्रमा से करबौलनि।।
खसल चरणपर देखि अधीरा प्रिय कन्याकें।
मंगलमय आशीष देल छवि-गुण-धन्याकें।।
‘सुते! प्राप्त करु जाय पतिक गृह दिव्य प्रतिष्ठा।
यथा ययातिक सदन पूजिता छलि शम्र्मिष्ठा।।
भेल क्षत्रपति पुत्र पुरु तनिका सुखकारी।
चक्रवर्ति सुत हो तथैव अहुँकें यशधारी।।
जनु कानी, चुप रहूँ, सुनू किछु हित-उपदेशे।
हैत न कोनहुँ भाँति जाहिसँ दुख-लवलेशे।।
करब अहाँ गुरुजनक सदा सादर सम्माने।
पैघ भाग्यपर करब कदापि न गर्व महाने।।
प्राणनाथ यदि करथि अँहक धोखें अपमानहुँ।
अँह उदास भय नहि कदापि ठानब हठ मानहुँ।।
प्राणपतिक सभ कथा सदा हित कय अँह जानब।
भंग न हो आदेश, देवते पतिकें मानव।।
सभखन तन-मन-वचन प्रेम पतिमे निज राखब।
ककरहुसँ कटु वचन अहाँ कौखन नहि भाषब।।
जे महिला छल करथि, दुराग्रह पतिसँ ठानथि।
प्रेम ककर थिक नाम पतिहुँ लग जे नहि जानथि।।
से थिकि वंशक व्याधि, कर्कशा नारि कहाबथि।
दीर्घकाल पर्यन्त अन्त नरकहुँ दुख पाबथि।।
सखी-भावसँ करब सदा सौतिनि-सत्कारे।
सभसँ राखब सुते! विनययुक्ते व्यवहारे।।
शकुन्तले! निश्चिन्त आइ यद्यपि हम बेशे।
किन्तु अँहक ई विरह अहह! सहि हो नहि लेशे।।
आई गृहस्थहि तुल्य हमहुँ यद्यपि वनवासी।
की दुखमय कटि रहल वनहुँ बिच आइ उदासी।।
आन पुरुषकें पिता, पुत्र, सोदर-सम जानब।
धर्म-कर्म सभ देव अहां पतियेकिं मानब।।
बेश आब करु सुते! अहां, शुभ-शुभ प्रस्थाने।
यैह शुभाशोर्वाद करत सभ विधि कल्याणे।।
सुते! तब स्मृति-चिन्ह विविध सुन्दर तपवनमे।
ह्वैछल स्वर्गानन्द देखि जे हृदय-भवनमे।।
किन्तु बड़ा से रहल आइ उत्ताप अपारे।
ज्योति एखन अँह एतहि तदपि वन लाग अन्हारे।।
जाय मालिनी-तीर नीर भरि-भरि के आनत?
लता-वृंदके आब सलिल दय के सम्मानत?
वन-देवी-सम आब विपिन के करत विहारे?
आमोदित के करत हमर चितकें विस्तारे?
अभ्यागतके सुविधि आब हा! के सत्कारत?
मृगगण ककरा घेरि आब निज खेलि पसारत?
के प्रथमहिं होमोपकरण वेदी लग राखत?
के कोकिलक समान कुहुकि मधुरस्वर भाषत?