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शकुन्तला / अध्याय 11 / भाग 1 / दामोदर लालदास

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मुनिवर-कन्या छवि-गुण-धन्या नृप दुष्यन्तक धामे।
पथश्रम झेलि आइ पहुँचल छथि सप्रसन्न अनुपामे।।
पतिक निकट छथि भेलि समागत यद्यपि से नव बाला।
उठय हृदय बिच विविधाशंका भरल विचारक माला।।

‘देखी आर्यपुत्र हमरासँ केहन सनेहक धारा।
राखि प्रीति निज प्रकट करै छथि कोन सुशब्दक द्वारा।।
प्रथम समागम-काल विलोचन नृपक अनूपम प्रीती।
किन्तु, आइ देखक थिक तनिकर की अनुरागक रीती।।

नहि, नहि, आर्यपुत्र छथि सभ विधि सज्जन प्रेमागारे।
रे चित! शंकित हो न वृथा, प्रिय छथि करुणा-अवतारे।।
करता से स्वीकार अवश्ये गहि करुणा-पाणीसँ।
... महा सत्कार हमर करता ध्रुव मधवाणीसँ।।’

एतदनन्तर पुछल महीपति मुनिक शिष्यसँ प्रेमे।
‘कहु-कहु कण्वक कुशल तथा कहु छथि ने तपोवनेमे?
ज्ञान-निधान तपोधन सद्माम शील-समुद्र अगाधा।
अछि तनिकाँ की तपक कार्यमे कोनहुँ प्रकारक बाधा?

नहि तँ की थिक हेतु अहाँकें हमरा निकट पठौलनि?
कहु-कहु की आदेष दान कय अनुकम्पा प्रगटौलनि?’
उत्तर कहल-‘कुशलसँ से छथि सुविधि प्रसन्न महाने।
महीपते ! अपनेक प्रतापें विघ्नक छनि अवसाने।।

तनिक तपाराधनक कार्यमे नहि बाधा लवलेशे।
प्रेषित कयल किन्तु से मुनिवर एक प्रेम-आदेशे।।’
वसुधाधिपक विलोकि नवाग्रह-भरल अलौकिक प्रीती।
लगला गुरु-सन्देश सुनाबय मुनि-मख-कथनक रीती।।

‘स्वर्गानन्द भेल हमरा अछि सुनि शुभमय ई वाणी।
अपने मम सुकुमारि सुताकेर ग्रहण कयल अछि पाणी।।
निज कन्ये-अनुरूप वरक हित छल मनमे अभिलाषा।
से अपने कय बेश अनुग्रह हमर पुराओल आशा।।

मम कन्यो सद्धर्म-रूपिणी अपने सदगुणशाली।
सभ विधि विधिक मेटायल निन्दा अनमिल जोड़ी वाली।।
अशीर्वाद हमर अछि-युग-युग टुटओ न प्रेमक डोरी।
दीर्घकाल पर्यन्त रहू कल्याणयुक्त युग जोड़ी।।

गान्धर्वेक रीति अवलम्बन यदि अहँ कयल प्रजेशे।
तँ अछि विनय-अन्य रानिहि सन हिनकहुँ बुझब विशेषे।।
पुरुवंशावतंश अपने छी सब विधि श्रेष्ठ महाने।
अछि आशा हिनकर करबनि धु्रव स्नेह-सहित सम्माने।।’

से सन्देश कयल श्रुतिगोचर से धर्मध्वज भूपे।
दुर्वासाक शाम-महिमा नृप-उर पहुँचल छल चूपे।।
अकचकाय तें ‘कि रहस्य ई?’ झट बजला दुष्यन्ते।
भेल शकुन्तलाक ‘ई’ पदसँ आशा-जीवन-अन्ते।।

नृप-मुख निर्गत वचन वचन नहि छल दावाग्नि समाने।
नव नागरिक मनोरथ-फुल-वन भेल भस्म-अवसाने।।
अस्तु, दाबि वक्षस्थल करसँ धारि धैर्य से बाला।
बुझलनि हास्य करै छथि प्रायः आर्यपुत्र एहि काला।।

मुनिक शिष्य पुनि कहल भूपसँ-लोकाचारक रीती।
सौभागिनिक हेतु थिक उत्तम पति-गृह बसब सप्रीती।।
पिता-भवनमे रहब हुनक नहि उचित कहै अछि लोके।
कारण सतिहुँ नारीकें हो तँह अपवादादिक शोके।।

तें सादर अछि मुनिक निवेदन लोकाचार विचारू।
राखिय प्रभो! धर्मपत्नी निज, तथा प्रीति विस्तारू।।’
अकचकाय बजला पुनि भूपति-की भ्रम कथा सुनौलहुँ।
हमर विवाह भेल कहिया हिनकासँ? दोष लगौलहुँ।।’

अहह! फेरि, ई नृपक वज्र सन वचन-पतन द्रुत भेले।
नव नागरिक उरस्थित धैरज चूर-चूर भय गेले।।
विह्वल बिकल विलोकि गोतमी कहल मेनकाजा कें।
‘पुत्री! लाज हँटाउ, आउ, निज मुख देखाउ राजाकें।।’

से कहि चन्द्रमुखिक घूँघट-पट गोतमि उठा हटौलनि।
की अनुपम लावण्य-पूर्ण मुखमण्डल नृपहिं देखौलनि।।
धर्मासन-आसीनो राजा नहि तथापि चिन्हि सकला।
शाप-विवश मन पारि-पारिकें सुमिरिकें थकला।।

लगला बाजय मनहि-मनहि पुनि पुरु-कुल-भूषण भूपे।
‘अहा! अहा! की दिव्य हिनक अछि मुख-मण्डल स्वरूपे।।
कोन विधाता चित्रकार, मुख-छवि विचरल सुखकन्दा!
कुन्तल-जाल-जलद-तरसँ जनु बहरल पूरन-चन्दा!

किन्तु रूप-सौंन्दर्य-लोभसँ नहि अर्धम-पथ घारब।
नहि सँस्मरण पड़ैछ! तखन हम कोना प्रिया स्वीकारब?’
प्रगट रूपमे कहल महीपति-‘कत मन पाडि़ अबैछी।
किन्तु विवाह-प्रसँग-कथा किछु सत्य न कतहु पबैछी।।

तखन गर्भयुक्ता बालाकें झूठ कोना स्वीकारू।
क्षेत्री शब्दक ई कलंक लय कोना सुकीर्ति सँहारू?’
दुखक सदन ई कथन नृपक सुनि परम विकल सभ भेले।
शकुन्तला अहा! जे बाँचल छल किछु धैरज गेले।।

किन्तु, पाबि सारंगरवक समयानुकूल आदेशे।
सुस्मरणार्थ कथा पूर्वक से कहल अधीर विशेषे।।
लज्जावती रती-बढि़ सुन्दरि से बाला मृगनयनी।
एक नयनसँ ताकि नृपक मुख बाजलि कोकिल बयनी।।

‘आर्य-पु...नहि-नहि ‘आर्यपुत्र’ नहि आब कहक अधिकारे।
हे पुरु-वंश-प्रदीप! इएह हो समुचित अहुँक विचारे?
नहि जनलहुँ हम पाणि ग्रहण कय कपट करब अहुँ भारी।
की छल-फल जानय हम गेलहुँ सरल स्वाभाविनि नारी।।

नहि हम जानल प्रीति प्रथम कय ई कठोरता धारब।
हा! सरला नवला अबलापर वासव वज्र बजारब।।’
कातर स्वरसँ उक्ति सकल सुनि कहल भूप दुष्यन्ते।
‘हे पद्मिनी! महापातक दय दिअ जनि अयश अनन्ते।।

कथिलै हमर वंश-मर्यादा भ्रष्ट करय चाहै छी?
व्यर्थ झूठ कहि कहू कथीलै प्रेम-सिन्धु थाहै छी!
देखू, तीर तोडि़ जे सरिता तरुवर तटक ढहाबय।
अपनहिं जलक विमलता नाशय तथा न शोभा पाबय।।

बस, ई उदाहरण अक्षरशः मनमे निकें बिचारू।
झूठ-फूसि कहि पुरुवंशक जनि धर्मक ध्वजा उखाडू।।’
ई पद पावक-तुल्य सुनल पुनि पति-परायणा बाला।
कम्पित स्वरमे कहल-‘हाय! हम की बाजब एहि काला।।

प्रेम जखन रहल नहि से तँ किछु कथिलै दर्शाऊँ
की पूर्वक प्रीतिक परिचय दय पापिनि व्यर्थ कहाऊँ।
किन्तु बिसरि यदि जानल अछि अपने हमरा पर-नारी।।
तें मुद्रिका देखाय दैत छी अहिंक देल मनहारी।।’