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शकुन्तला / अध्याय 11 / भाग 2 / दामोदर लालदास

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कहल बिहँसि नृप-‘बात अहाँ तँ ई टा बेश बनौलहुँ।
लाउ, कतय सेहो देखी कनि! शुद्ध प्रेम प्रगटौलहुँ।।’
से सुनि दृष्टि झटिति आड़र दिशि कयलनि से मृगनैनी।
किन्तु हाय! नहि देखि मुद्रिका भेल असह बेचैनी।।

भौंचकि रहलि कहल गोतमिसँ भेलि महोदासीना।
‘अहा! अहा! कत ससरि खसल’ कहि भेलि आकुला दीना।।
कहल गोतमि-‘बुझि पडे़छ पथमे आचमनक काले।
शची-तीर्थमे ससरि खसल धु्रव औंठी! बुझु नरपाले।।’

तिरस्कारसँ मुसुकि कहल नृप ‘हम बुझि गेलहुँ ठीके।
नारीगणक उपस्थित बुद्धिक परिचय पाओल नीके।।’
शोकातुरा कहल नव-नागरि-‘निज बल ईश जनौलनि।
जे हा! आइ एहन अवसरपर गंजन सहित छकौलनि।।

ई थिक हमर अभाग्यातेक फल वा दैवी दुर्योगक।
जलमे कखन कोना से ससरल बात महासँयोगक।
छल अपनेक नाम शुभ अंकित औंठीपर, मन पारू।
जे पहिरौने छलहुँ स्नेहवश, अपनहुँ से न बिसारू।।

चलबा काल दिव्य तपवनसँ शुद्ध स्नेह दरशौलहुँ।
शीघ्रहिं लय जायब रजधानी कहि औंठी पहिरौलहुँ।।
की सेहो मिथ्येक कथन थिक? किए न मन पाड़ै छी?
उनटे बना कलंकिनि हमरहि धर्म अपन झाड़ै छी?

पुरुवंशक निर्मले धर्मध्वज जानि स्नेह हम जोड़ल।
ताहि ध्वजामे हम नहि? अपनहिं बेश कालिमा बोरल।।
एतबे नहि, आरो अनेक हम स्नेह-चिह्न रखने छी।
किन्तु जखन मिथ्ये-वादिनि हम तखन व्यर्थ भषने की।।’

‘से कहु, से कहु’ सुनि से बाजलि-‘अछि सँस्मरण अहाँकें?
लेल अहाँ जल हाथ पियाबक हेतु हरिण बच्चाकें।।
किन्तु जखन नहि अहँक हाथसँ से मृग पीलक नीरे।
तथा सैह जल हमरा करसँ पीबि भेल सुस्थीरे।।

तैखन अहाँ बिहँसि बजलहुँ-सभ ताकय निज सहवासी।
नहि तँ हमरहुँ हाथ पीबि जल लैत हरिण वनवासी।।
जे माधवी-निकुंजक शोभा सभक हृदय हरि लैये।
ततहिंक ई रहस्य-घटना थिक-की किछु ध्यान अबैये?’

कहि दिअ, इहो झूठ घटने थिक, सभ हम झूठ बतौलहुँ।
कियै अहँक सँस्मरण-शक्ति भेल एहन? सकल बिसरौलहुँ?
एक दिन स्नेहक अमर-तरंगिणि सन धारा उछलौलहुँ।
आइ दिवस एहनो देखैत छी सभ गुणकें गोबरलहुँ।।’

कहल महीपति-‘बुझल-बुझल’, किछु लाभ न बात बनौने!
कामी जनक चित्त विचलित हो ई सभ कथा सुनौने।।
किन्तु, एतय धर्मक सिंहासन, एतय न क्यौं से कामी।
सुयश कालिमा बोरि लेत के पाप-सहित बदनामी।।’

बाजलि गोतमि परम क्रुद्ध भय सुनि नृप-वचन कठोरे।
बस करु, एहन वचन बाजी जनि हृदय विदग्धक घोरे।।
ई कन्या? तपवनक पालिता, राज्य-कुलक नहि जाया।
सभविधि शुद्ध-स्नेह-आपूरित एकर विनिर्मल काया।।’

भुपति कहल ‘विदित जगमे अछि परम चतुर हो नारी।
तें हम कहल कथा किछु झूठ न, क्रोध करिय जनि भारी।।’
धर्मव्रती नव नागरिकें सुनि आब रहल नहि गेले।
क्रोध-भरल तन थर-थर काँपय, रक्तवर्ण दृग भेले।।

तमकि कहल-‘बस बुझल, बुझल हम, अधिक न बात बघारू।
धर्मवान धरि वेश अहाँ छी! बुझल डींग जनि मारू।।
अपनहुँ पाणिग्रहीतीकें तें परनारी बनबै छी।
की विशिष्ट धर्मक परिभाषा निस्सँकोच बजै छी।।’

क्रोध अनल धधकल छल धह-धह भृकुटि चढ़ल छल नीके।
किन्तु तथापि विशेष कथा किछ बाजि न भेल सतीके।।
विषम वेदना-सिन्धु-निमग्ना भेलि अहा! से बाला।
मुखि-शशि-मण्डल पर धय अंचल रोदन कयल विशाला।।

देखि अकृत्रिम क्रोध तथा वैकल्य तनिक विस्तारे।
भेल भ्रमहुँ-वश नृपक हृदयमे यदपि ममत्व अपारे।।
किन्तु, त्याग, स्वीकार न एको करथि नृपति महिपाला।
ओस-बुन्द कल कुन्द-कुसुम पर देखि यथा अलिमाला।।

क्षण भरि क्षुब्ध छला नृप बैसल से विचारमे चुपे।
तमकि कहल शारदत तत्क्षण नीति समय अनुरूपे।।
‘की चुप भूप! अहिंक ई रमणी, अहीं हिनक भद्र्मारे।
राखी अथच त्यागि हिनका दी, अहिंक सकल अधिकारे।।’

से कहि गोतमि-सहित युगल मुनि-शिष्य कयल प्रस्थाने।
नव नागरिहुँ चललि उठि सँगहिं खसइत झाँक-झमाने।।
अश्रु-धारसँ तितल युगल छल कोमल तनिक कपोले।
क्षण-क्षण पीपर-पात-सरिस हा! हा! मन-मन्दिर डोले।।

कनइत कातरि भेलि कहल से की करुणामय वाणी!
‘के हमरा सनि आइ अभागलि जगमे नारि-सयानी।।
त्यागल प्राणनाथ निर्मोही, बिसरि सकल अनुरागे।
ई विपत्ति-अवसरहिं अहूँ सभ की करबे परित्यागे?’

से सुनि तमकि देल उत्तर मुनि-शिष्य-‘कलंक लगयबे!
नहि-नहि, आब कण्व-आश्रममे टपय कदापि न पैबें।।
भेल न होय सत्य यदि तोहर धर्म कोनहुँ विधि नष्टे।
तँ बनि दासी पतिक एतहि मर. सहितहुँ गंजन-कष्टे।।’

सुनि दुष्यन्त कहल-‘हिनका कथमपि नहि राखि सकै छी।
धर्मनिष्ठ भय ई पापक फल हम नहि चाखि सकै छी।।’
राज्य-पुरोहित कहल भूपसँ निज सम्मति तत्काले।
‘पुत्र चक्रवर्तीक जन्म धरि राखिय गुर्विणि-बाले।।’

पतिक धर्मपर, अपन कर्मपर करइत पश्चात्तापे।
श्रावण-भाद्रक जलद बना‘दृग करति विलाप-कलापे।।
ठोहि पारि कनइत कँपइत तन नृप सन्निधि तजि चलली।
कतहु ठओर ठहरक नहि देखल, अबला जिबितहिं मरली।।

हृदय-विदारक देखि शोक-विह्वलता निज कन्याकेर।
पतियक्ता गुर्विणी अनाथा रूप-राशि-धन्याकेर।।
महा प्रखरतम अनल-ज्वाल-सम ज्योति प्रबल छिटकाकै।
उतरि उड़ा लय गेलि मेनका, जन चकचैन्हि लगाकै।

हेमकूट पर्वतक शिखर पर अदितिक प्रिय तपवनमे।
राखल कन्या परम सुरक्षित ठाम जानि निज मनमे।।
ततहि विरह-तप्ता प्रजेश-त्यक्ता शकुन्तला बाला।
लगलो रहय जपति दुर्भाग्यक महा मलिनतम माला।।