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शकुन्तला / अध्याय 12 / भाग 1 / दामोदर लालदास

एतय भूप दुष्यन्तहुकें चिन्ता न क्षणहुँ भरि छोड़ल।
शयनागार-शयन-शय्यापर छटपटाति तन मोड़ल।।
क्षण-क्षण ई शोकान्त नाटकक चिन्तन करइत मनमे।
महा विकल छथि पड़ल भूप दुष्यन्तो राज-भवनमे।।

शयन-भवन जे निशि-दिन नृपकें नवानन्द दरशौलक।
रंग-रंग आमोद-प्रमोदक दृश्य देखा हर्षोलक।।
लीला-ललित सुहाव-भावहुक चित्रण चारु रचैलक।
सैह शयन-मन्दिर मधु मयनक नृपकें आइ कनौलक।।

सँयोगक थिक कथा-एक दिन धुमइत राज-सिपाही।
रत्नक औंठी बेचि रहल छल क्यो नामांकित शाही।।
पकड़ल गेल पुलिसकेर द्वारा पुछल-‘कतय ई पौले’?
की पाकटम री कय कहुँसँ औंठी नृपक चोरौले?

डरसँ देह सगर थड़-थर कर तकर, नयन बह नीरे।
कण्ठ भेल अवरुद्ध, अधरपर फुफरी! भेल अधीरे।।
किछु समयोपरान्त साहस कय लटपटाइत से बाजल।
‘स-स सर-कार! चोर न-न-नहि हम, डरि बुकोरिस्वर साजल।।

‘अहह! राजपण्डित विद्वद्वर दिव्य कलाधर अपने!
पुरष्कारमे रत्न-मुद्रिका देल नृपतिवर अपने।।
की अपूर्व आमोद-दायिनी मधुर सुगन्धिहुँ देहक।
हीना-अतर-गुलाब-गन्धिमय! लिअ किछु और सनेहक।।’

‘लिय-लिय पुरष्कार हमरहुसँ’ललकि पुलिस सत्कारल।
बेंत उठाय सटासट तनपर पुरष्कारमे मारल।
बाप! बाप! कय पाडि़ भोकासि महला कानय डरसँ।
‘मा-मा-मा-लिक! साँच कहैछी, पौलहुँ मत्स्य-उदरसँ।

सुनु, सुनु, हमरो बात म-मा-लिक! भौंह एना जनु तानू।
रतियो झूठ कहब कखनो नहि, साँच-साँच सभ मानू।।
हम मलाह, माछे रोजी अछि, माछे बेचि जिबै छी।
माछेसँ घरकें पालै छी, माछे बेचि खिबै छी।।

शची धारमे जाल पसारल रहु बड़का पकड़ायल।
चिरने ताही रहुक पेटसँ ई औंठी बहरायल।।
रतन-फतन कहिया हम देखल, बुझलहुँ चमकल चानी।
सोचल दुइयो-चारि टका हम बेचि-बिकिन घर आनी।।

‘हँ-हँ झूठ कहूँ अँह बाजी! महा युधिष्ठिर अपने।
रतने खाय जिबैछ माछ अपनेक! सुनै छी गप ने।।
चल पाजी! तस्कराधीश! किछु लाभ न बात बनौने।
चल-चल-चल ‘कहि दय गरदनियाँ चलल पुलिस ठुनकौने।।

ई कनने-खिजने बपहारिहुँ कटने की? जिब गेलौ।
राज-रत्न-मुद्रिका-चोर! शिर आइ काल मरड़ैलौ।।
नित्य हजार-हजार माछकें फाँसीं फँसा जिब लेलें।
तही मत्स्य-सभहक अभिशापें तहुँ फाँसी पर ऐलें।।

वसुधाधीशक करज-विभूषण-चोरी-नहि साधारण।
फाँसी पर झुलबाक जानि ले इएह प्रधाने कारण।।
कान-खीज की बाप! बाप! कर, की कर नाना! नानी!
आइ प्राण गेले छौ! गरमे लगतौ सस्सरफानी!!