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शकुन्तला / अध्याय 15 / भाग 2 / दामोदर लालदास

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कनै छली! बाजि उड़ै छली! खनो
कंपे छली! चैंकि खनो उठै छली।
तकै छली तं तकिते रहै छली
वियोगमे भेलि बताहि तुल्य से।।

छलो अहा! बैसलि एक काल से
सखी-विहीना मलिनाचिन्तित।
समीर लै सौरभ ताहि कालमे
सुखार्थ प्रत्यागत भेल बालकें।।

डोलाय शाख लतिका मनोहरा।
उड़ायकें आनल एक भृंगकें।
प्रपूर्ण-माधुर्य-प्रसून-अंकमे
मिलाय बैसाओल ताहि प्रेमसँ।

विलोकि सम्मेलन से शकुन्तला
तथा समीरोक महा दयार्दंत।
शुभाशलीना पति-दर्शनोत्सुका
समीरसँ बाजलि कानि-कानिकें।।

‘प्रणाम साष्टांग करैत छी प्रिये!
प्रिया स्वकीया दृग-वारि-अर्ध्य लै
करू दयाद्रें! डपकार एकटा
सखीक ई प्रेम-भिखारिणीक वा।।

चिन्हैत छीहे अहं आर्यपुत्रकें
तथा जनै छी प्रिय राजधानियो।
प्रिये! तहीं गोचर मोर मानिकें
घड़ी उठा कष्ट कनीक जाउ तं।।

ततै अहां जाय समीप नाथके
निकुंजमे वा रस-रंग-धाममे।
प्रभात हो वा दिवावसान हो
क्रियो देखा देव विनोद-वर्द्धिनी।।

लिबाय कोनो लतिका कृशांगिनी
सखी! अहां प्रीतम-पाद-पद्ममे।
छुआयकें बोध कराय देव ई
प्रणाम साष्टांग करैछ किंकरी।।

खसाय कोनो मलिना लता अहां
सक्षम प्राणेशक नैन-कजंके।
सुचातुरीसँ दय देव सूचना
जिबैछ कोनो विधिये वियोगिनी।।

खसायकें पीयर पात वृक्षसँ
प्रभूक आगां, तकरो कंपायके।
सखी! अहां देब जनाय नाथकें
प्रकम्पशीला अछि पीतवर्णिनी।।

कते कहू ! छी चतुरे अहां सखी।
देखा स्वकीया मधु कार्य-चातुरी।
बता अहां देबनि प्राण-नाथकें
समग्र ई मोर महा व्यथा-कथा।।

खसैत जै हो कण अंगरागके
रसज्ञ प्राणेशक दिव्य अंगसै।
उठायकें से, गति मन्द-मन्दमे
उड़ाय आनू शमनार्थ। वेदना।।

सखी! अहां जै प्रिय पुष्पमालिका
लखी तहां टूटल मंजु-कण्ठसँ
सुयुक्तिसै फूल एको उड़ायकें
जुड़ाय तं मानस तप्त नैन ई।।

सखो! गिरामे प्रिय आर्यपुत्रकें
अनूप संजीवनता, सुमाधुरी।
अहा! अहा! से स्वर जं सुनी कनी
जिबैज तं ई निहता वियो गिनी।।

उड़ाय आनू सखि! भावसँ
कणावली नाथ-पदाब्ज-धुलिके।
चढ़ाय जे माथ, लगाय अंगमे
हंटा सकै ताप सखी! वियोगिनी।।

अधीक जं कष्ट तहां बुझी अहां
तथा न जं कार्य एतेक कै सकी।
सुनू, सुनू, तै एतबो करू प्रिये।
दयाद्रं प्राणेश-समीप जायकें।।

प्रफुल्ल प्राणेश-पदाब्ज छूबिकें
अहां प्रिये होउ एतै समागता।
जुड़ाय छाती हम लेब हे सखी!
एतै अहींके ऊरसँ लगायकें।।

एतादृशे कोकिलसँ, सुधाशुसै
मयूरसँ, श्यामल मेघसँ सदा।
करै छली हा! करुणाद्रं प्रार्थना
शकुन्तला से विकला विवर्णिनी।।

कते कहू! लोचनसँ मुखेन्दुसँ,
वियोगिनीके प्रति रोम-रोमसँ
अनुक्षणे चातकि-तुल्य शब्द हो-
‘कहाँ! कहाँ! प्रीतम मोर पी कहाँ।।