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शकुन्तला / अध्याय 15 / भाग 1 / दामोदर लालदास

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महा मनोहारिणि शान्तिदायिनी
सुहेमकूटस्थ तपोमही-स्थिता।
शकुन्तला चन्द्रकला-निभानना
वियोगतप्ता पति-चिन्तनातुरा।।

प्रफुल्लिता सुन्दा पुष्प-बल्लरी
महा मनोमुग्धकरी तपोमही।
अहा! अहा! से सँभ देखि-देखिकें
महा अधिरे छलि से वियोगिनी।।

कतै अहा! चन्दु्रमुखीक पुष्टता।
कतै मनोमुग्धकरी सुमाधुरी।।
कतै हंसी-खेल तनीक गेल हा।
सदा निमग्ना पतिदेव-ध्यानमें।।

समीर सदुगन्धि समेत जं तं
अबैछ शैतल्य-प्रपूर्ण कुंजसँ
डंसैछ मानु अति भेलि निष्ठुरा
कृशागिंनीके विषमा भुजंगिनी।।

पहाड़़ लागै दिनकाल बाल कें
बुझैछ से द्रौपदि-चीर यामिनी।
कुहू-कुहू तीर हनैछ तानिकें
विदग्धका शीतल चन्द्र-चन्द्रिका।।

अहो! अहो! आजु अनूप माधुरी-
प्रपूर्ण श्रृंगार-युता शकुन्तला।
नितान्त साधारण धूसराम्बरा।
समस्त श्रृंगार-हता तपस्विनी।।

दहो-बहो नोर बहैछ नैनसँ
पड़ैछ हा! निन्द न यामिनीहुँ मे।
सरोज-नैनीक मनोज्ञ नैनमे
प्रवर्द्धिता भेलि प्रगाढ़ लालिमा।।

कहैछ हा! से कखनो कुदैवसँ
विनम्र भावें अति भेलि कातरा।
विधे! अहो जानि महापराधिनी
न दण्ड कोनो छल आन की कड़ा।

खसायकें वज्र, चलाय चक्र वा।
अनेक प्राणन्तक तीक्ष्ण अस्त्रसँ
चटाक जै प्राणहि लै लितौं विधे!
बुझेत भारी उपकार पापिनी।।

अहीं विधाता, परिपालको अहीं
समस्त सँसारक प्राणिमार्के।
दयालुओ भै एतबा कठोरता!
बधैत छी गर्दनि रेति-रेति कें।।

कहै छली लोचन-नोर डारि कें
वियोगिनी से अति भेलि कातरा।
सखी कते देखब प्राणनाथकें।
सुधाक्त पुर्णानन चन्द्र-चन्द्रिका !

सखी कहाँ जाउ? सुयुक्ति की रचू?
पठाउ हा हा! ककरा समाद दै?
सकैछ के सूनि, बता, बता सखी।
अभागिनीके दुखदात्म-वेदना,

मुनैत छी नैन, हठात् जंखनो
रहैछ से हा! न क्षणो सुधीर भै।
न स्वप्न सँयोगहुँ दैछ हा! बनै
सखी! सखी ! घोर वियोग-वेदना।।

रसाल शाखापर बैसि चातकि
सखी! सखी! देख पुछैछ-‘पी कहाँ?
सहानुभूत्यर्थ पुछैछ जोरसँ
बता सखी! उत्तर-दान की करू?

सखी! ओतै दम्पति चक्रवाककें
करैछ पारम्पररिकांक-मालिका।
विहंग-आमोद-प्रमोद की अहा!
महा हमी छी ह्तभागिनी सखी!!

पदाब्ज लै लोचन-भृंगके महा
तथैव वाणी श्रवाणर्थ कानके।
प्रवर्द्ध मानानुपमेय-लालसा
बुझा-बुझा दे हम की करी सखी।।

महा तपस्या हम चुकलौं कहूं
अवश्य कोनो निज पुर्व जन्ममें !
तही महापापक योगसँ सखी !
सुभागिनीसँ बनलौ अभागिनी।।

अपार वैकल्प विलोकि बालकें
समीप जा-जा बुझेवै सुरांगना।
‘सखी ! सखी ! त्याग महा अधीरता
कुमार-चन्द्रानन-चारु चूमिकें।।

तमोमयी रात्रि अबैछ फानिकैं
अकण्ठके राज्यक लालसा-वशा।
परन्तु, शीघ्रे तकरो विदीर्ण कै
अबैछ आकश दिनेश-लालिमा।।

अवश्य सँयोगक सुप्रभात हो!
सखी! सदास्था न वियोग-यामिनी।
अहर्निशे की प्रियके वियोगमे
रहैछ शोकाकुलिते सरोजिनी।।

सखीक से सूनि यथार्थ सान्त्वना
शकुन्तला शान्तहुँ ह्नैछली खनो।
परन्तु प्राणेशक ध्यान बालकें
झड़ी लगा नोरक दैछ नैनमे।।