भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शकुन्तला / अध्याय 20 / भाग 1 / दामोदर लालदास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जनिक कीर्ति-कथा मधवर्षिणी
रचित अंकित ‘पद्म-पुराण’ मे।
अथच ‘भारत’ मे, ऋषि व्यासहुँ
रचल दिव्य सतीत्व-कथा पुरा।

ललित नाटक रूप प्रदान कैय
कवि शिरोमणि ‘कालि’ स्वकीर्तिसँ
अमरता पद पाओल विश्वमे
विलिखि दिव्य चरित्रक माधरी।।

जकर उत्तमता मधतामयी
विलिखि शब्द-सुरत्व-विभूषिता।
जग-गिरा-भरिमे अनुवाद कै
जगत मानल-भारत धन्य ई।।

कतय भेल न ई अनुवादिता
फहरि गेल यशध्वज नै कहाँ?
सुलखिकें रचना कवि-चातुरी
अति प्रशंसित भेल शकुन्तला।।

रदन आंगुर काटल देखिकें
मुदित भेल जपानहुँ जर्मनी।
अति प्रसन्न इरोप, रसा मही
कहल-नाटक धन्य शकुन्तला।

अहह! की मधुरा चरितावली!
रस, अलंकृतिसँ समलांकृता।।
मधुर की सुकवित्वक माधुरी।
भय विमुग्ध विलोकल अमृका।।