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शकुन्तला / अध्याय 20 / भाग 2 / दामोदर लालदास

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तकर मैथलि पद्यनुवाद कै
कयल हा! हमहूँ बड़ धृष्टता।
सरस ई रचना अवलोकिते
अति उताहुलि भेलि सुलेखनी।।

मचलि बाजलि-छोडु निराश्यता
कवि! लिखैत चलू कवितामयी।
जननि ‘मैथिलिकें करु अर्चना
सफलता दय देति सरस्वती।।’

सरस वा अति नीरस जे कही
रचल स्वान्त-सुखाय शकुन्तला।
त्रुटि क्षमा करता कवि अप्रणी
मधुर साहस-कार्य-विचारकें।।

कयल क्यो जननी-पद-अर्चना
विकच लै अरविन्द, सुमल्लिका।
हम स्वामातृ-समर्चन हेतुएँ
कतय पायब पाटल यूथिका।।

अति नितान्त निगन्ध कनैल लै
कयल अर्चन मैथिलि-मायकें।
जननि की करती न दुलार तें?
जननिए जगमे सुत-वत्सला।।

अपर यावत काव्य-कलामयी
रचित भै न अबैछ प्रकाशमे।
रहओ नावत यैह शकुन्तला
कवि कलाधरकें मनरंजिनी।।