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शब्दों का परिसर / कुंवर नारायण

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मेरे हाथों में
एक भारी-भरकम सूची-ग्रन्थ है
विश्व की तमाम
सुप्रसिद्ध और कुप्रसिद्ध जीवनियों का :
कोष्ठक में जन्म-मृत्यु की तिथियाँ हैं।

वे सब उदाहरण बन चुके हैं।

कुछ नामों के साथ
केवल जन्म की तिथियाँ हैं।
उनकी अन्तिम परीक्षा
अभी बाक़ी है।

ज़ो बाक़ी है
वह कितना बाक़ी रहने के योग्य है
एक ऐसा सवाल है
जिसके सही उत्तर पर निर्भर है
केवल एक व्यक्ति की नहीं
बल्कि व्यक्तियों के पूरे समाज की
सफलता या असफलता।

पढ़ते-पढ़ते एक दिन मुझे लगा
एक ही जीवनी को बार-बार पढ़ रहा हूँ
कभी एक ही अनुभव के विभिन्न पाठ
कभी विभिन्न अनुभवों का एक ही पाठ!

अन्तिम समाधान के नाम पर
उतने ही विराम
जितने वाक्य,
और जितने वाक्य
उससे कहीं अधिक विन्यास।

शब्दों का विशाल परिसर-
मानो एक-दूसरे से लगे हुए
छोटे-छोटे अनेक गुहा-द्वार,

भीतर न जाने कितने
विविध अर्थों को
आपस मं जोड़ता हुआ
भाषाओं का मानस-परिवार।

अचानक ही घोषित होता- "समाप्त"
हम चौंक पड़ते
अमूल्य सामग्री,साज-सज्जा,
सारा किया-धरा
तितर-बितर।

विषय
और वस्तु
वही रहते।
'समाप्ति' को उलट कर
रेतघड़ी की तरह
फिर रख दिया जाता आरम्भ में :
और फिर शुरू होती
धूमधाम से
किसी नए अभियान की
उल्टी गिनती

ढिंढोरा पिटता-
इस बार बिल्कुल मौलिक!
लेकिन इस बार भी यदि
अधूरा ही छूट जाए कोई संकल्प
तो इतना विश्वास रहे
कि सही थी शुरूआत