भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शब्द से नि:शब्द तक / एम० के० मधु
Kavita Kosh से
इन दिनों मेरी सारी कविताएँ
तुम्हारे इर्द गिर्द घूमती हैं
इन दिनों धूप का एक गोला
बार-बार तुम्हारी पलकों की छाँव से टकरा कर
मेरी खिड़की पर आ गिरता है
इन दिनों हर शाम
बरसात के मौसम में
बादलों का समूह
तुम्हारी छत और मेरी छत के बीच
पुल बनाता है
इन दिनों सब कुछ ठीक नहीं है
पर तुम्हारी गंध का निःशब्द अहसास
मुझे उस पुल पर चढ़ने को मजबूर करता है
काश! हॉलीवुड का स्पाइडर-मैन होता
या सुपर-मैन
तुम्हारे कँगूरे से लटकता झूलता रहता
तुम्हारे निज के मौसम में
सूराख बनाता रहता
कुछ पानी, कुछ आग
चुरा कर लाता
निज की मरुभूमि पर
पेड़ों की पाँत लगाते
दौड़ लगाता रहता
तय करता रहता
एक अन्तहीन दूरी
शब्द से निःशब्द तक ।