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शब-ए-वस्ल थी चाँदनी का समाँ था / हैदर अली 'आतिश'
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शब-ए-वस्ल थी चाँदनी का समाँ था
बग़ल में सनम था ख़ुदा मेहरबाँ था
मुबाकर शब-ए-कद्र से भी वो शब थी
सहर तक मह ओ मुशतरी का क़िराँ था
वो शब थी कि थी रौशनी जिस में दिन की
ज़मीं पर से इक नूर तो आस्माँ था
निकाले थे दो चाँद उस ने मुक़ाबिल
वो शब सुब्ह-ए-जन्नत का जिस पर गुमाँ था
उरूसी की शब की हलावत थी हासिल
फ़रह-नाक थी रूह दिल शादमाँ था
मुशाहिद जमाल-ए-परी की थी आँखें
मकान-ए-विसाल इक तिलिस्मी मकाँ था
हुज़ूरी निगाहों को दीदार से थी
खुला था वो पर्दा कि जो दरमियाँ था
किया था उसे बोसा-बाज़ी ने पैदा
कमर की तरह से जो ग़ाएब दहाँ था
हक़ीक़त दिखाता था इश़्क-ए-मजाज़ी
निहाँ जिस को समझे हुए थे अयाँ था
बयाँ ख़्वाब की तरह जो कर रहा है
ये क़िस्सा है जब का कि ‘आतिश’ जवाँ था