शब ओ रोज़ रक़्स-ए-विसाल था सो नहीं रहा / रेहाना रूही
शब ओ रोज़ रक़्स-ए-विसाल था सो नहीं रहा
कभी तुझ को मेरा ख़याल था सो नहीं रहा
वो जो बे-क़रारी-ए-जान-ओ-दिल थी नहीं रही
वो जो हिज्र तेरा मुहाल था सो नहीं रहा
कभी आँख में जो मुरव्वतें थीं फ़ना हुईं
पस-ए-चश्म अश्क-ए-मलाल था सो नहीं रहा
ये तो ए‘तिराफ-ए-शिकस्त है कि मज़ीद अब
कोई महरम-ए-माह-ओ-साल था सो नहीं रहा
वो कि चाँद जिस पे कभी गुरूब नहीं हुआ
यहाँ इक वो शहर-ए-जमाल था सो नहीं रहा
मुझे ऐसा लगता है जैसे आँख से ख़्वाब का
वो जो राब्ता सा बहाल था सो नहीं रहा
मुझे क़त्ल कर के मोआमला नहीं होगा ख़त्म
कि जो क़त्ल पहले कमाल था सो नहीं रहा
मिरा ए‘तिबार अदम वजूद से उठ गया
वो जो ज़िंदगी की मिसाल था सो नहीं रहा
शब-ए-महताब में रात घटने के साथ साथ
जो समुंदरों में उबाल था सो नहीं रहा
है अजब मशक़्क़त-ए-वस्ल जिस की थकन से क़ब्ल
ये बदन थकन से निढाल था सो नहीं रहा