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शब गुज़ीदा है मगर फिर भी सहर जैसा है / सिया सचदेव

शब गुज़ीदा है मगर फिर भी सहर जैसा है
मेरी आँखों में जो आँसू है गुहर जैसा है

मुल्क़ बँटने से भी हालात कहाँ बदले हैं
हाल जो सबका इधर है वो उधर जैसा है

नब्ज़ मद्धम है तवाज़ुन में नहीं है धड़कन
इन दिनों हाल मेरा ज़ेर-ओ-ज़बर जैसा है

घूरती रहती है पिंज़रे की सलाखें मुझको
अब तो माहौल-ए-क़फ़स का मेरे घर जैसा है

तू मेरे साथ मेरे ग़म में ख़ुशी में है शरीक़
तुझसे रिश्ता मेरा कुछ शीर-ओ-शकर जैसा है

रौंदती रहती हूँ अपना ही मैं लाशा हरदम
मेरे क़दमों में जो है मेरे ही सर जैसा है

मिसरा-ए-तरहा था दुश्वार मगर फिर भी सिया
पेश तो कर ही दिया मैंने हुनर जैसा है