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शब हाथ हमारे जो मय-ए-नाब न आई / ज़फ़र

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शब, हाथ हमारे जो मये-नाब<ref>मदिरा</ref> न आई
कैफियते-शे‘रे<ref>शे‘र कहने का नशा</ref> शबे-महताब<ref>चांदनी रात</ref> न आई

सहरा में घटाघोर पे, हम बादकशों<ref>शराबी</ref> की
कब आई कि बा-दीदा-ए-पुरआब<ref>भीगे नयन</ref> न आई

जो मुल्के-अदम<ref>परलोक</ref> से नहीं आया कोई हमदम
क्या याद उसे सोहबते-अहबाब<ref>मित्र</ref> न आई

खा ही रहा हलका<ref>घेरा</ref> में दिले-जुल्फ के चक्कर
किस रोज ये कश्ती सरे-गदराब<ref>भंवर के किनारे</ref> न आई

था हमको ख्याल आएगा वो ख्वाब में लेकिन
नींद आंखों में शब-ए-दिले-बेताब न आई

तेरे ख़मे-अबरू<ref>भंवो को टेढ़ापन</ref> में किया सिजदा जो हमने
बेहतर नजर इससे कोई मेहराब<ref>घुमाव</ref> न आई

देखा दिले-बेताब को अपने तो ‘जफर’ फिर
खातिर<ref>दिल</ref> में मेरे माही-ए-बे-आब<ref>बिना जाल की मछली</ref> न आई

शब्दार्थ
<references/>