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शरशय्या / तेसर सर्ग / भाग 9 / बुद्धिधारी सिंह 'रमाकर'
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जे जन केवल अपने नीक।
सोचथि, अन्ध तनिक मति थीक।।37।।
ऐश्वयक अछि एके काज।
कारए प्रफुल्लित सुजन समाज।।38।।
छत्र चामरक कएलहुँ त्याग।
आएल हमरा जे न अभाग।।39।।
टटके देखू कुलदृष्टान्त।
महामोह थिक लोभ अशान्त।।40।।
आबहुँ भारत छोड़ए लोभ।
नहि तँ पाओत पद पद क्षोभ।।41।।
भाए भएमे कएलहुँ मारि।
ते पछताबी मनके मारि।।42।।
रहितए जँ ओ सम्पति शेष।
भाग्य केहन कहु तखन विशेष।।43।।
व्यर्थक झगड़ा क्षणिकक हेतु।
बान्हए टूटए पलमे सेतु।।44।।