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शान्ति और कल्याण / तृष्णा बसाक / लिपिका साहा

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इन दिनों मेरा कोई चेहरा रहा ही नहीं
अब मेरी कोई चीख़ भी नहीं

सब हो चुका है शान्त
चारों ओर है शान्ति और कल्याण
सेतु सभी हैं अब सुरक्षित ही
हे अग्नि, करो उत्सव, बीच इस नगर-बवाली
हे मृत्तिका, उत्सव धरो तुम, शहादतवाली
जान लो, अब कोई चेहरा नहीं रहा मेरा
न कोई चीख़ बची है मेरी !

पुन:
क्योंकि जानती है मिट्टी ही, माटी जान चुकी है सब
जितने भी तुम कर लो बवाल यहाँ-वहाँ

डिक्की में भरी लाशें और खलिहान में भरे धान
पैरों तले नाचे साला भगवान !

मूल बांग्ला से अनुवाद : लिपिका साहा